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________________ ४१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०५ और न यापनीय ही कहा जा सकता है। वस्तुतः वे उस काल में हुए हैं, जब उत्तरभारत के निर्ग्रन्थसंघ में आचार एवं विचार सम्बन्धी अनेक मतभेद अस्तित्व मे आ गये थे, किन्तु उस युग तक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होकर श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्पराओं का जन्म नहीं हुआ था। हमें पाँचवीं शताब्दी के पूर्व न तो अभिलेखों में और न साहित्यिक स्रोतों में ऐसे कोई संकेत मिलते हैं, जिनके आधार पर यह माना जा सके कि उस काल तक श्वेताम्बर (श्वेतपट्ट), दिगम्बर या यापनीय ऐसे नाम अस्तित्व में आ गये थे। यद्यपि वस्त्र-पात्रादि को लेकर विवाद का प्रादुर्भाव हो चुका था, किन्तु संघ स्पष्टरूप से खेमों में विभाजित होकर श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर ऐसे नामों से अभिहित नहीं हुआ था। उस काल तक मान्यताभेद और आचारभेद को लेकर विभिन्न गण, कुल और शाखाएँ तो अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती थीं, किन्तु सम्प्रदाय नहीं बने थे। अतः काल की दृष्टि से उमास्वाति न तो श्वेताम्बर थे और न यापनीय ही थे, अपितु वे उस पूर्वज धारा के प्रतिनिधि हैं, जिससे ये दोनों परम्परायें विकसित हुई हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि दक्षिण भारत की अचेलधारा, जो आगे चलकर दिगम्बर नाम से जानी गई, उससे वे सीधे रूप से सम्बन्धित नहीं थे। २. "यह सत्य है कि तत्त्वार्थसूत्र की कुछ मान्यताएँ श्वेताम्बर आगमों के और कुछ मान्यताएँ दिगम्बरमान्य आगमों के विरोध में जाती हैं। यह भी सत्य है कि उसकी कुछ मान्यताएँ यापनीयग्रन्थों में यथावत् रूप में पायी जाती हैं, किन्तु इस सबसे हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते कि वे श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परम्परा के थे। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है, उमास्वाति उस काल में हुए हैं, जब वैचारिक एवं आचारगत मतभेदों के होते हुए भी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हुआ था। इसी का परिणाम है कि उनके ग्रन्थों में कुछ तथ्य श्वेताम्बरों के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल, कुछ तथ्य दिगम्बरों के अनुकूल और कुछ प्रतिकुल तथा कुछ तथ्य यापनीयों के अनुकूल एवं कुछ उनके प्रतिकूल पाये जाते हैं। वस्तुतः उनकी जो भी मान्यताएँ हैं, उच्चनागर शाखा की मान्यताएँ हैं। अतः मान्यताओं के आधार पर वे कोटिकगण की उच्चनागर शाखा के थे। उन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय मान लेना संभव नहीं है।" (जै.ध.या.स./पृ.३८१-३८२)। यहाँ डॉक्टर सा० ने उमास्वाति को स्वकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का मानने के दो हेतु बतलाये हैं-१. उमास्वाति के अस्तित्वकाल तक दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का उदय न होना तथा. २. उनकी मान्यताओं का इन तीन सम्प्रदायों में से किसी के भी पूर्ण अनुकूल न होना। किन्तु ये हेतु प्रामाणिक नहीं हैं। इनका निरसन नीचे किया जा रहा है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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