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________________ अ०१६/प्र०५ तत्त्वार्थसूत्र / ४१५ निरसन ___१. उमास्वाति को जिस उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का बतलाया गया है, उसका अस्तित्व ही नहीं था, वह डॉ० सागरमल जी द्वारा कल्पित है, यह प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय (प्रकरण ३) में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। अतः उमास्वाति का उस काल्पनिक सम्प्रदाय से सम्बद्ध होना संभव ही नहीं हैं। ___. उक्त सम्प्रदाय का अस्तित्व होता भी, तो उसका श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों में विभाजन कदापि संभव नहीं था, क्योंकि उसमें सचेल और अचेल दोनों लिंगों में से किसी भी लिंग को अपनाने का विकल्प था। जो अचेललिंग धारण करने में असमर्थ थे, उनके लिए सचेललिंग धारण करने की स्वतंत्रता थी, वे अचेललिंग ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं थे। सचेललिंग को लेकर संघविभाजन तभी हो सकता था, जब उक्त संघ में अचेललिंग ही अनिवार्य होता, किन्तु ऐसा नहीं था। इसी प्रकार अचेललिंग को लेकर भी किसी को अलग होने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उसे भी अपनाने की स्वतंत्रता उक्त सम्प्रदाय देता था। और यापनीय नामक सम्प्रदाय बनानेवालों के तो उक्त सम्प्रदाय से पृथक् होने का प्रश्न ही नहीं उठ सकता था, क्योंकि वे अचेल और सचेल दोनों लिंगों से मुक्ति के समर्थक थे और उक्त सम्प्रदाय ऐसा ही था। वस्तुतः तथाकथित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के माने गये सिद्धान्त यापनीयसम्प्रदाय के ही सिद्धान्त हैं। इसलिए सचेलाचेल-मुक्ति के समर्थकों को कोई पृथक् सम्प्रदाय बनाने और उसे 'यापनीय' नाम देने की आवश्यकता नहीं थी। उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय नाम से ही वह प्रसिद्ध रहता। इस तरह उक्त सम्प्रदाय के विभाजित होने के कोई कारण ही उसमें विद्यमान नहीं थे। इससे सिद्ध होता है कि उसके विभाजन की घटना काल्पनिक है। (इसका विस्तृत विवेचन अध्याय २/प्र.४/शी.२ में द्रष्टव्य है)। इस तरह जो श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय उक्त सम्प्रदाय से उत्पन्न ही नहीं हुए , उमास्वाति उनके पूर्वपुरुष कैसे हो सकते थे? कदापि नहीं। ३. यह मान्यता भी मिथ्या है कि ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व किसी अभिलेख या साहित्यिक स्रोत में दिगम्बर, श्वेताम्बर आदि सम्प्रदायों के नाम उपलब्ध नहीं होते। सम्राट अशोक के दिल्ली (टोपरा) के सातवें स्तम्भ लेख (ईसापूर्व २४२) में निर्ग्रन्थों (निगंठेसु) का उल्लेख है। (देखिये, अध्याय २/प्र.६/शी.२)। निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बर जैन मुनियों का वाचक है, यह पाँचवीं शताब्दी ई० के श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा एवं मृगेशवर्मा के देवागिरि एवं हल्सी के तामपत्रलेखों से सिद्ध है। तथा ईसापूर्व छठी शती के बुद्धवचनसंग्रहरूप त्रिपिटकसाहित्यगत अंगुत्तरनिकाय नामक ग्रन्थ में और प्रथम Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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