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________________ ४१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०५ शताब्दी ई० के बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान में निर्ग्रन्थ शब्द से दिगम्बरजैन साधुओं का कथन किया गया है (देखिये, अध्याय ४/ प्र.२/शी.१.१ एवं १४)। इसी प्रकार अशोककालीन या ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में रचित बौद्धग्रन्थ अपदान में सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र = श्वेतपट) नाम से श्वेताम्बर साधुओं का उल्लेख मिलता है। (देखिये, अध्याय ४/ प्र.२/शी.१.२)। इन ऐतिहासिक प्रमाणों से ये दोनों मान्यताएँ धराशायी हो जाती हैं कि पाँचवीं शती ई० के पूर्व तक दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आये थे और तब तक एकमात्र उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का अस्तित्व था। यतः इन प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि निर्ग्रन्थ (दिगम्बरजैन) संघ का अस्तित्व बौद्धकाल एवं सम्राट अशोक के काल (ईसापूर्व २४२) में भी था और श्वेतपटसंघ अशोककाल अथवा ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में भी विद्यमान था, अतः यह निर्विवाद स्थापित होता है कि पाँचवीं शती ई० के पूर्व उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय नाम का कोई भी सम्प्रदाय विद्यमान नहीं था, केवल निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरजैनसंघ) एवं श्वेतपटसंघ का अस्तित्व था। अतः तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य पाठ और भाष्य (तत्त्वार्थधिगमभाष्य) के कर्ता उमास्वाति श्वेताम्बर ही थे। ४. भाष्यगत सैद्धान्तिक समानता के कारण भाष्यकार का यापनीय होना भी संभव है। भाष्य में स्वीकृत सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि की मान्यताएँ यह निश्चित करती हैं कि भाष्यकार श्वेताम्बर या यापनीय के अतिरिक्त और किसी सम्प्रदाय के नहीं हैं, उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के तो कदापि नहीं, क्योंकि वह कपोलकल्पित है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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