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________________ षष्ठ प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल द्वितीय शताब्दी ई० डॉ॰ सागरमल जी ने तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल निर्धारित करने के लिए गुणस्थानसिद्धान्त को आधार बनाया है। वे लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजमात्र मिलते हैं, उसका पूर्ण विकसित रूप दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि षट् खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में वह पूर्ण विकसित रूप में उपलब्ध होता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना षट्खण्डागम आदि के पूर्व हुई है । १६५ उनका कथन है कि "ये सभी ग्रन्थ लगभग पाँचवीं शती के आसपास के हैं। इसलिए इतना तो निश्चित है कि तत्त्वार्थ की रचना चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व की है ।" १६६ फिर वे और भी अन्य बातों का विचार करके लिखते हैं- " इस समस्त चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उमास्वाति का काल वि० सं० की तीसरी और चौथी शताब्दी के मध्य है । १६७ डॉक्टर साहब की तथाकथित गुणस्थानसिद्धान्त के विकास की अवधारणा कपोलकल्पित है, यह दशम अध्याय के पंचम प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। तत्त्वार्थसूत्रकार को गुणस्थानसिद्धान्त अपने परिपूर्णरूप में पूर्वाचार्यों द्वारा रचित षट्खण्डागम, कसायपाहुड, समयसार, भगवती आराधना, मूलाचार आदि दिगम्बरग्रन्थों की परम्परा से प्राप्त हुआ था और उसके आधार पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र में परीषहों और चतुर्विधध्यानों के स्वामित्व का सूक्ष्म और सटीक निरूपण किया है । यह तथ्य आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय में विस्तार से प्रतिपादित किया गया है। यतः तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानसिद्धान्त अपने परिपूर्णरूप में उपलब्ध है, अतः उसके विकास की कल्पना निराधार है। इसलिए विकास की कल्पना के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र को प्राचीन और षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों को अर्वाचीन मानना भी निराधार है। प्रस्तुत अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में सोदाहरण सिद्ध किया गया है कि सूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना षट्खण्डागम, समयसार, पंचास्तिकाय, भगवती - आराधना दिगम्बरग्रन्थों के आधार पर की है। इससे स्पष्ट है कि उसकी रचना इन ग्रन्थों की १६५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. ३६७-३६८ । १६६. वही / पृ. ३६८ । १६७. वही / पृ. ३७२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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