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________________ २०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ १.२. आचेलक्य के बिना संयतगुणस्थान असंभव मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा। इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि॥ १॥ मूला./पू.। अनुवाद-"जो मूलगुणों से विशुद्ध हैं, उन समस्त संयतों को मस्तक झुकाकर प्रमाण करते हुए इस लोक और परलोक, दोनों के लिए हितकर मूलगुणों का वर्णन करूँगा।" इस मंगलाचरण में मूलाचार के कर्ता ने स्पष्ट किया है कि जो २८ मूलगुणों से विशुद्ध होता है, वही संयतगुणस्थान प्राप्त कर सकता है। संयतगुणस्थान का अर्थ है मुनिपद। आचेलक्य भी २८ मूलगुणों में से एक है। अतः सिद्ध है कि आचेलक्य के बिना संयतगुणस्थान अर्थात् मुनिपद की प्राप्ति संभव नहीं है। इस प्रकार आचार्य वट्टकेर की दृष्टि में सचेलपुरुष संयत (मुनि) ही नहीं होता, तब उसके द्वारा धारण किये गये वस्त्रों को अपवादलिंग संज्ञा दे देने पर भी उसके कर्मों की निर्जरा कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती। अतः अचेलपुरुष को ही संयत कहे जाने से सिद्ध है कि आचार्य वट्टकेर को सचेल-अपवाद-लिंगधारी पुरुष की मुक्ति मान्य नहीं है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि उन्हें गृहिलिंगियों, परलिंगियों और आर्यिकाओं की भी मुक्ति अमान्य है। १.३. सर्वांग-निर्वस्त्रता ही अचेलता और निर्ग्रन्थता मूलाचार के कर्ता ने कहा है कि शरीर को किसी भी वस्तु से आवृत न करना, सर्वथा खुला रखना आचेलक्य है, इसी का नाम निर्ग्रन्थता है वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणं। णिब्भूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पुज्जं॥ ३०॥ अनुवाद-"वस्त्र, चर्म और वल्कल अथवा पत्तों आदि से शरीर को आवृत न करना तथा आभूषणों और अन्य ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित होना आचेलक्य है। यहाँ आचार्य वट्टकेर ने बतलाया है कि समस्त आभूषणों और बाह्य पदार्थों का इस सीमा तक त्याग करना कि शरीर का कोई भी अंग वस्त्रादि से आच्छादित न रहे, आचेलक्य या निर्ग्रन्थता है। १.४. आचेलक्य का अर्थ अल्पचेलत्व नहीं श्वेताम्बरों और यापनीयों का मत है कि अपवादलिंगधारी स्थविरकल्पी साधु गृहस्थों की अपेक्षा अल्पवस्त्र धारण करते हैं, अतः 'आचेलक्य' का अर्थ ईषत्-चेलत्व अर्थात् अल्पचेलत्व है। फलस्वरूप सचेल अपवादलिंगधारी पुरुष में 'आचेलक्य' मूलगुण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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