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________________ अ०१५ /प्र०१ मूलाचार / १९९ हैं। वे निम्नलिखित गाथाओं में वर्णित हैं पंच य महव्वयाइं समदीओ पंच जिणवरुट्ठिा। पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओ॥ २॥ आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव। ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुण अट्ठवीसा दु॥ ३॥ अनुवाद-"जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के ये अट्ठाईस मूलगुण निर्दिष्ट किये हैं : पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँचों इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त।" इनमें आचेलक्य (नग्नता) को मुनि का मूलगुण अर्थात् आधारभूत गुण बतलाया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके बिना कोई भी पुरुष 'मुनि' नहीं कहला सकता। मूलगुणों के बिना उत्तरगुणों का भी विकास नहीं हो सकता, जो इस प्रकार हैं: तीन गुप्तियाँ, दस धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीषहों पर विजय, पाँच चारित्र और बारह तप, जिनमें धर्मध्यान और शुक्लध्यान शामिल हैं। अतः अचेलत्व के अभाव में इन उत्तरगुणों का विकास भी असंभव है। इसलिए कोई भी वस्त्रधारी पुरुष, भले ही वह अप्रशस्तलिंगादि के कारण अपवाद रूप से वस्त्रधारण करे, मूलाचार के अनुसार 'मुनि' संज्ञा का अधिकारी नहीं है। ये अट्ठाईस मूलगुण बिलकुल वे ही हैं, जिनका प्ररूपण आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में किया है। यथा वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च॥ ३/८॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि॥ ३/९॥ इससे एक बात स्पष्ट होती है कि मूलाचार के कर्ता वट्टकेर श्रमणाचार के विषय में पूर्णतः कुन्दकुन्द के अनुगामी हैं। ७. "मूलगुणाः प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगुणाधारभूतानि" ( उत्तरगुणों के लिए आधारभूत प्रधान अनुष्ठानों को मूलगुण कहते हैं )/आचारवृत्ति / मूलाचार / पूर्वार्ध / गा.१ । ८. ते मूलुत्तरसण्णा मूलगुणा महव्वदादि अडवीसा। तवपरिसहादिभेदा - चोत्तीसा उत्तरगुणक्खा ॥ ३॥ ( मूलाचार की फलटण से प्रकाशित प्रति में अतिरिक्त गाथा क्र.२ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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