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________________ १९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ २. मूलाचार में श्वेताम्बरपरम्परा के अनेक ग्रन्थों का उल्लेख है, और उनके पढ़ने का उपदेश दिया गया है। इससे भी सिद्ध होता है कि यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। ३. कुछ गाथाओं में अभिव्यक्त किये गये विचार दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल नहीं हैं, जो इसके यापनीय होने का संकेत देते हैं। ४. कुछ गाथाएँ स्त्रीमुक्ति की समर्थक प्रतीत होती हैं। यह भी ग्रन्थ के यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण है। सभी हेतु असत्य इनमें से कोई भी हेतु सत्य नहीं हैं। अतः यह नयी उद्भावना असत्य है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ है। हेतुओं की असत्यता का उद्घाटन आगे किया जायेगा। पहले उन प्रमाणों पर दृष्टिपात कर लिया जाय, जिनसे यह सिद्ध होता है कि मूलाचार दिगम्बरग्रन्थ है। वे द्विविध हैं : अन्तरंग और बहिरंग। सर्वप्रथम अन्तरंग प्रमाणों का प्रदर्शन किया जा रहा है। दिगम्बरग्रन्थ होने के अन्तरंग प्रमाण यापनीयमत विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन मूलाचार में ऐसे अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं और दिगम्बरमत के सूचक हैं। उनसे प्रमाणित होता है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं सवस्त्रमुक्ति अमान्य १.१. आचेलक्य मुनि का मूलगुण मूलाचार (पू.) में मुनिपद का निर्धारण करनेवाले अट्ठाईस गुण बतलाये गये हैं, जो 'मुनि' नाम से अभिहित होने के लिए आधारभूत हैं, अत एव मूलगुण कहलाते ६. जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./ पृ.५५०-५५२ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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