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________________ अ० १५ / प्र० १ मूलाचार / १९७ इन बारह अधिकारों में विभक्त है--- । इसकी यह विशेषता रही है कि उन बारह अधिकारों में से विवक्षित अधिकार में जिन विषयों का विवेचन किया जानेवाला है, उसकी सूचना उस अधिकार के प्रारंभ में करके तदनुसार ही क्रम से उनकी प्ररूपणा वहाँ की गई है। उक्त बारह अधिकारों में अन्तिम पर्याप्ति अधिकार है। प्रारंभ में यहाँ कर्मचक्र से निर्मुक्त सिद्धों को नमस्कार करके आनुपूर्वी के अनुसार पर्याप्तिसंग्रहणियों के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् इस अधिकार में जिन विषयों का विवेचन किया जानेवाला है, उनका निर्देश इस प्रकार दिया गया है— पर्याप्ति, देह, काय व इन्द्रियों का संस्थान, योनि, आयु, प्रमाण, योग, वेद, लेश्या, प्रवीचार, उपपाद, उद्वर्तन, स्थान, कुल, अल्पबहुत्व तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश - रूप चार प्रकार का बन्ध । इन सब सैद्धान्तिक विषयों की प्ररूपणा यहाँ व्यवस्थितरूप में जिस क्रम व पद्धति से की गई है, उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता को उन विषयों का ज्ञान अविच्छिन्न आचार्यपरम्परा से प्राप्त था ।" ( षट्खण्डागम - परिशीलन / पृ. १५०-१५१) । ग यापनीयग्रन्थ होने की नई उद्भावना : समर्थक हेतु इस प्राचीन दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार के विषय में पण्डित नाथूराम जी प्रेमी ने एक नई उद्भावना की है । वह यह कि यह दिगम्बर - आचार्य की कृति नहीं है, अपितु यापनीय - आचार्य द्वारा रचित है। वे लिखते हैं- "यह उस परम्परा का जान पड़ता है, जिसमें शिवार्य और अपराजित हुए हैं। "" श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने भी इस मत का अनुसरण किया है। डॉ० सागरमल जी ने एकदो - नये हेतु भी प्रस्तुत किये हैं, पर उन्होंने मुख्यतः प्रेमी जी के ही हेतुओं को बढ़ाचढ़ा कर मूलाचार के यापनीयग्रन्थ होने की जोरदार वकालत की है। प्रेमी जी ने जो हेतु बतलाये हैं, उनका सार इस प्रकार है १. मूलाचार में भी भगवती - आराधना की तरह श्वेताम्बर - ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ संगृहीत हैं। डॉ० सागरमल जी ने इसे अपनी भाषा में इस प्रकार रखा है - " वस्तुतः मूलाचार श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य नियुक्तियों एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु एवं सामग्री से निर्मित है। --- और चूँकि यह शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध है, अर्धमागधी में नहीं, इससे सिद्ध होता है कि यह यापनीयग्रन्थ है । "५ ४. जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं. / पृ. ५५०-५५२ । ५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १३१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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