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________________ ६३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९/प्र०१ गौतम स्वामी ने यह किसी से भी नहीं कहा कि जो परीषहादि सहने में असमर्थ होने के कारण दिगम्बरदीक्षा ग्रहण न कर सकता हो, वह अपवादमार्ग के रूप में सवस्त्र मुनि-दीक्षा ग्रहण करे। इससे सिद्ध होता है कि रविषेण यापनीयमान्य सवस्त्र मुनिदीक्षा के विरुद्ध थे। १.७. वस्त्रपात्रादि उपकरणधारी कुलिंगी हैं रविषेण ने गौतम स्वामी के मुख से वस्त्रपात्रादि उपकरणधारी साधुओं को कुलिंगी और निर्ग्रन्थ (अशेषपरिग्रह-त्यागी यथाजातरूपधर) मुनियों को ही पूज्य कहलवाया है नानोपकरणं दृष्ट्वा साधनं शक्तिवर्जिताः। निर्दोषमिति भाषित्वा गृह्णते मुखराः परे॥ ११९/५९॥ व्यर्थमेव कुलिङ्गास्ते मूढैरन्यैः पुरस्कृताः। प्रखिन्नतनवो भारं वहन्ति भृतका इव॥ ११९/६०॥ ऋषयस्ते खलु येषां परिग्रहे नास्ति याचने वा बुद्धिः। तस्मात्ते निर्ग्रन्थाःसाधुगुणैरन्विता बुधैः संसेव्याः॥ ११९/६१ ॥ पद्मपुराण/ भाग ३। इन वचनों से तो इस निर्णय में सन्देह ही नहीं रहता कि रविषेण को यापनीय साधुओं का वस्त्रपात्रमय अपवादलिंग सर्वथा अमान्य था, इसलिए वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर थे। १.८. जैनलिंग से ही मोक्ष की प्राप्ति रविषेण ने बतलाया है कि जिनलिंग (दिगम्बरमुद्रा) के ही द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसका निरूपण करते हुए वे लिखते हैं "अथातोऽपरे भव्यधर्मस्थिताः प्राणिनो देवदेवस्य वाग्भिभृशं भाविताः सिद्धिमार्गानुसारेण शीलेन सत्येन शौचेन सम्यक्तपोदर्शनज्ञानचारित्रयोगेन चात्युत्कटाः येन ये यावदष्टप्रकारस्य कुर्वन्ति निर्णाशनं कर्मणस्तावदुत्तुङ्गभूत्यन्विताः स्वर्भवानां भवन्त्युत्तमाः स्वामिनस्तत्र चाम्भोधितुल्यान् प्रभूताननेकप्रभेदान् समासाद्य सौख्यं ततः प्रच्युता धर्मशेषस्य लब्ध्वा फलं स्फीतभोगान् श्रियं प्राप्य बोधिं, परित्यज्य राज्यादिकं जैनलिङ्गं समादाय कृत्वा तपोऽत्यन्तघोरं समुत्पाद्य सद्ध्यानिनः केवलज्ञानमायुःक्षये कृत्स्नकर्मप्रमुक्ता भवन्तस्त्रिलोकाग्रमारुह्य सिद्धा अनन्तं शिवं सौख्यमात्मस्वभावं परिप्राप्नुवन्त्युत्तमम्।" (पद्मपुराण। भाग ३/पर्व ७८ / श्लोक ६२ के अनन्तर/ पृ.८३)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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