SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० १९ / प्र० १ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३५ अनुवाद - ( गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं) "हे राजन् ! इस प्रकार श्रीमान् राम के प्रव्रजित होने पर सोलह हजार से अधिक लोग श्रमण हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख - प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक श्रमणी के पास आर्यिका हुईं।" पूर्वशीर्षक १.२ के अन्तर्गत उद्धृत पद्मपुराण के श्लोकों ( १०९ / ८८-९०) में निरम्बर (दिगम्बर) मुनि को ही श्रमण कहा गया है तथा राम ने दिगम्बरदीक्षा ही ग्रहण की थी। (देखिये, पूर्वशीर्षक १.३), अतः उनके साथ दीक्षित लोगों का दिगम्बरदीक्षा ग्रहण करना स्वतः सिद्ध है। लङ्का में भी रावण की मृत्यु से निर्वेद को प्राप्त उसके अनुयायी दैगम्बरी दीक्षा ही लेते हैं, यापनीयों की अपवादमार्गी सवस्त्र दीक्षा कोई भी ग्रहण नहीं करताकेचित्संसारभावेभ्यो निर्वेदं परमागताः । चक्रुर्दैगम्बरीं दीक्षां मानसे जिनभाषिताम् ॥ ७८/५२ ॥ राम के वनगमन से शोकसन्तप्त अनेक राजा भी निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) दीक्षा ही लेते हुए दिखलाये गये हैं। राजा अतिवीर्य श्रुतिधर मुनि से दैगम्बरी दीक्षा की ही याचना करता है।' देशभूषण और कुलभूषण राजकुमार भी दैगम्बरी दीक्षा का ही आश्रय लेते हैं। मृदुमति नामक ब्राह्मणपुत्र भी उसी का अवलम्बन करता है। इससे स्पष्ट है कि पद्मपुराण अपवादमार्गी सवस्त्र मुनिदीक्षा को स्थान देनेवाले यापनीयमत का ग्रन्थ नहीं है । १.६. सभी को दिगम्बर मुनि बनने का उपदेश गौतम स्वामी, राजा श्रेणिक तथा उनके साथ आये सामन्तादि को भी श्रीराम के ही मार्ग का अनुसरण करने ( दिगम्बर मुनि बनने) का उपदेश देते हैं पद्मपुराण/ भाग ३ | युष्मानपि वदाम्यस्मिन् सर्वानिह समागतान्। रमध्वं Jain Education International तत्र सन्मार्गे रतो यत्र रघूत्तमः ॥ ११९ / ५५ ॥ पद्मपुराण / भाग ३। १. पद्मपुराण / भाग २ / ३२ / ७२-७३ । २. जगाद नाथ वाञ्छामि दीक्षां दैगम्बरीमिति ॥ ३७ / १६० ॥ पद्मपुराण / भाग २ | ३. दीक्षां दैग्वाससीं श्रितौ ॥ ३९/१७४ ॥ पद्मपुराण / भाग २ । ४. पादमूलेऽभजद्दीक्षां सर्वग्रन्थविमोचिताम् ॥ ८५ / १३७ ॥ पद्मपुराण / भाग ३ | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy