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________________ ६३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९ /प्र०१ रराज सुतरां रामस्त्यक्ताशेषपरिग्रहः। सैंहिकेयविनिर्मुक्तो हंसमण्डलविभ्रमः॥ ११९ / २८ ॥ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-"अशेष परिग्रह का त्याग कर देने पर राम इस प्रकर सुशोभित हो रहे थे, जैसे राहु से मुक्त सूर्य।" इस तरह रविषेण ने वस्त्र का भी त्याग कर देनेवाले को ही अशेषपरिग्रह का त्यागी कहा है और निम्नलिखित श्लोकों में जातरूपधरत्व (नग्नरूप) को ही बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्याग का लक्षण बतलाया है भरतोऽपि महातेजा महाव्रतधरो विभुः। धराधर-गुरुस्त्यक्त-बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहः॥ ८७/९॥ जातरूपधरः सत्यकवचः शान्तिसायकः । परीषहजयोद्युक्तस्तपःसंयत्यवर्तत॥ ८७/१२॥ __ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-"भरत भी महातेजस्वी, महाव्रतधारी, विभु , पर्वत के समान स्थिर तथा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी थे। यथाजातरूप (नग्नरूप) धारण कर, सत्यरूपी कवच एवं क्षमारूपी बाणों से सुसज्जित हो, परीषहों को जीतने के लिए तपरूपी युद्धभूमि में विचरण कर रहे थे।" इन वचनों से ध्वनित होता है कि आचार्य रविषेण अपवादरूप से वस्त्रधारण करनेवाले साधु को अशेषपरिग्रह या बाह्याभ्यन्तर-परिग्रह का त्यागी नहीं मानते। फलस्वरूप वह अपरिग्रह-महाव्रतधारी न होने से उनकी दृष्टि में साधु नहीं है। इससे पता चल जाता है कि रविषेण यापनीय नहीं थे। १.५. सभी के द्वारा दिगम्बर-दीक्षा का ग्रहण राम के दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करने पर उनके साथ सोलह हजार से अधिक लोग दिगम्बर मुनि ही बनते हैं। एक भी पुरुष को अपवादलिंगधारी सवस्त्र मुनि बनते हुए वर्णित नहीं किया गया। देखिए पद्मपुराण (भाग ३) के निम्नलिखित श्लोक एवं श्रीमति निष्क्रान्ते रामे जातानि षोडश। श्रमणानां सहस्राणि साधिकानि महीपते॥ ११९/४१॥ सप्तविंशसहस्राणि प्रधानवरयोषिताम् । श्रीमती-श्रमणीपार्वे बभूवुः परमार्यिकाः॥ ११९/४२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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