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________________ बृहत्कथाकोश / ७५७ अ० २३ इस तरह बृहत्कथाकोश में क्षुल्लक को श्रावक की श्रेणी में परिगणित किया जाना भी इस बात का प्रमाण है कि हरिषेण सवस्त्रलिंग को मुनि का अपवादलिंग नहीं मानते, अपितु श्रावक का लिंग मानते हैं, अतः वे यापनीय- आचार्य नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। ८. हरिषेण ने सवस्त्रदीक्षा का विधान केवल श्रावकों (श्रावक-श्राविकाओं, क्षुल्लकक्षुल्लिकाओं) और आर्यिकाओं के लिए बतलाया है। दीक्षा धारण करनेवालों में कहीं भी सवस्त्र मुनियों या स्थविरकल्पियों का उल्लेख नहीं है। नागश्रीकथानक ( क्र. ६७) के निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य हैं अन्योऽपि भूपसङ्घातो भोगनि:स्पृहमानसः। दधौ दैगम्बरीं दीक्षां धर्मसेनान्तिके मुदा ॥ ४९ ॥ केचित् सम्यक्त्वपूर्वाणि व्रतान्यादाय भक्तितः । अणूनि श्रावका जाता जिनधर्मपरायणाः ॥ ५० ॥ मुण्डिताद्यबलाः सद्यो महावैराग्यसङ्गताः । ऋषभ श्रीसमीपे हि बभूवुरर्जिकाः पराः ॥ ५१॥ ९. वस्त्रदान केवल आर्यिकाओं के लिए बतलाया गया है, मुनियों के लिये आहारदान, ओषधिदान एवं शास्त्रदान इन तीन दानों का ही उल्लेख है । अशोक - रोहिणीकथानक (क्र.५७ ) के ये पद्य साक्षी हैं Jain Education International पञ्चमीपुस्तकं दिव्यं पञ्चपुस्तकसंयुतम् । साधुभ्यो दीयते भक्त्या भेषजं च यथोचितम् ॥ ५३५ ॥ आहारदानमादेयं भक्तितो भेषजादिकम् । वस्त्राणि चार्यिकादीनां दातव्यानि मुमुक्षिभिः ॥ ५३६ ॥ १०. बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करनेवालों को ही श्रमण या मुनि कहा गया है केचित् परिग्रहं हित्वा महाव्रतधरा धीरा बभूवुः बाह्याभ्यन्तरभेदगम् । श्रमणास्तदा ॥ ४० ॥ केचिच्छ्रावकतां प्राप्ताः केचित्सम्यक्त्वतोषिणः । केचित्प्रशंसनं कुर्युः जिननाथस्य शासने ॥ ४१ ॥ For Personal & Private Use Only श्रेणिकनृप - कथानक / क्र. ९ । www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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