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________________ ७०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र० पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ऐसी कोई अटकल नहीं लगाई है। वे लिखते हैं"पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। हरिषेण ने अपने कथाकोष में लिखा है कि भद्रबाहु स्वामी के आज्ञानुसार उनका सारा संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ के पुन्नाट देश में गया।२ दक्षिणापथ का यह पुन्नाट कर्नाटक ही है। कन्नड़ साहित्य में भी पुन्नाटराज्य के उल्लेख मिलते हैं। प्रसिद्धभूगोलवेत्ता टालेमी ने इसका 'पोन्नट' नाम से उल्लेख किया है। इस देश के मुनिसंघ का नाम पुन्नाटसंघ था। संघों के नाम प्रायः देशों और स्थानों के नाम से पड़े हैं। श्रवणबेल्गोल के १९४ नं. के शिलालेख में जो श० सं० ६२२ के लगभग का है, एक 'कित्तूर' नाम के संघ का उल्लेख है। कित्तूर या कीर्तिपुर पुन्नाट की पुरानी राजधानी थी, जो इस समय मैसूर के 'होग्गडेवकोटे' ताल्लुके में है। सो यह कित्तूरसंघ या तो पुन्नाटसंघ का ही नामान्तर होगा या उसकी एक शाखा।" (जै. सा.इ./द्वि. सं./ पृ. ११४)। प्रेमी जी हरिवंशपुराणकार द्वारा उल्लिखित उनकी गुरुपरम्परा का निर्देश करते हुए आगे लिखते हैं-"इसमें अमितसेन को पुन्नाटसंघ का अग्रणी (आगे जानेवाला) बतलाया है, जिससे ऐसा मालूम होता है कि ये अमितसेन ही पुन्नाटदेश को छोड़कर सबसे पहले उत्तर की तरफ बढ़े होंगे और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाट में ही विचरण करता रहा होगा। अर्थात् जिनसेन से ५०-६० वर्ष पहले ही काठियावाड़ में इस संघ का प्रवेश हुआ होगा।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.११५)। "--- जान पड़ता है कि पुन्नाट (कर्नाटक) से बाहर जाने पर ही यह संघ पुन्नाटसंघ कहलाया, जिस तरह कि आजकल जब कोई एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाकर रहता है, तब वह अपने पूर्वस्थानवाला कहलाने लगता है।" (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.१२२)। प्रेमी जी की यह व्याख्या अत्यन्त युक्तिसंगत है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति हरिवंशपुराणकार जिनसेन के पूर्वज आचार्य अमितसेन के पुन्नाटदेश को छोड़कर काठियावाड़ जाने पर हुई थी। अतः यह अटकल निरस्त हो जाती है कि पुन्नागवृक्षमूलगण से उसकी उत्पत्ति हुई थी या पुन्नागवृक्षमूलगण उसका रूपान्तर है। पुन्नाट शब्द देशवाचक है और पुन्नाग शब्द वृक्षवाचक। इनमें परस्पर कोई साम्य भी नहीं है, जिससे एक से दूसरे की उत्पत्ति मानी जाय। इस प्रकार सिद्ध है कि पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति यापनीयों के पुन्नागवृक्षमूलगण से नहीं हुई थी, अत: वह यापनीयसंघ नहीं था। इसलिए पुन्नाटसंघी जिनसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है। २२. अनेन सह सङ्घोऽपि समस्तो गुरुवाक्यतः। दक्षिणापथ-देशस्थ-पुन्नाट-विषयं ययौ॥ ४२ ॥ भद्रबाहुकथानक । बृहत्कथाकोश। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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