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________________ अ० २१ / प्र० २ हरिवंशपुराण / ७०१ पहली गलत सूचना - 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने 'जैन साहित्य और इतिहास' के पृष्ठ १२२ का सन्दर्भ देते हुए लिखा है कि "पं० नाथूराम जी प्रेमी ने जिनसेनकृत हरिवंशपुराण और आचार्य हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश में ऐसे अनेक तथ्यों को खोज निकाला है, जिनके आधार पर ये ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, अन्यलिंगमुक्ति का निषेध करनेवाली मूलसंघीय दिगम्बरपरम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा के सिद्ध होते हैं।" (जै. ध. या. सं./पृ.६२) । यह सूचना एकदम गलत है। मैंने प्रेमी जी कृत 'जैन साहित्य और इतिहास' के दोनों संस्करण अच्छी तरह देखे हैं, न तो उनके १२२ पृष्ठ पर उक्त तथ्यों का उल्लेख है, न अन्य किसी पृष्ठ पर । इसके विपरीत उन्होंने तो उक्त दोनों ग्रन्थों को दिगम्बरसम्प्रदाय का ही बतलाया है। वे लिखते हैं- "दिगम्बरसम्प्रदाय के संस्कृत - कथासाहित्य में हरिवंशचरित या हरिवंशपुराण समय की दृष्टि से तीसरा कथाग्रन्थ - पहला रविषेणाचार्य का पद्मचरित, दूसरा जटासिंहनन्दी का वराङ्गचरित्र और तीसरा यह ।” (जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.११३)। निम्नलिखित वक्तव्यों में प्रेमी जी ने हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश को दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ निरूपित किया है " काठियाबाड़ के ही वर्द्धमानपुर में, जो इस समय बढ़वाण के नाम से प्रसिद्ध है, आचार्य जिनसेन ने अपना हरिवंशपुराण श० सं० ७०५ और हरिषेण ने अपना कथाकोष श० सं० ८५३ में समाप्त किया था । अतएव काठियाबाड़ में दिगम्बरसम्प्रदाय काफी प्राचीनकाल से रहा है।" (जै. सा. इ. प्र.सं./पृ. ४४६) । हरिषेण-कथाकोष का परिचय देते हुए वे अन्यत्र लिखते हैं-" उपलब्ध जैनकथाकोशों में यह कथाकोश सबसे प्राचीन है। इसका रचनाकाल शकसंवत् ८५३, वि० सं० ९८९ और श्लोक संख्या साढ़े बारह हजार है। दिगम्बरसम्प्रदाय में 'आराधनाकथाकोश' नाम के दो संस्कृतग्रन्थ और हैं, एक प्रभाचन्द्र का गद्यबद्ध और दूसरा मल्लिभूषण के शिष्य ब्र० नेमिदत्त का पद्यबद्ध । " (जै. सा. इ./द्वि.सं./पृ.२२०) । इस प्रकार पं० नाथूराम जी प्रेमी ने हरिवंशपुराणकार जिनसेन और बृहत्कथाकोशकार हरिषेण, इन दोनों पुन्नाटसंघीय आचार्यों को दिगम्बरसम्प्रदाय का ही माना है। तात्पर्य यह कि उनके अनुसार पुन्नाटसंघ दिगम्बरसम्प्रदाय का ही संघ था। दूसरी गलत सूचना — डॉ० सागरमल जी ने आगे लिखा है - " यद्यपि हरिवंशपुराण के प्रथम और अन्तिम सर्ग में आचार्यों की जो सूची दी गई है, उसके कारण पुन्नाटसंघ को यापनीय मानने में बाधा आती है, किन्तु श्रीमती कुसुम पटोरिया और पं० नाथूराम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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