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________________ ४४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० १ किन्तु तिलोयपण्णत्ती कहती है कि चतुर्विध दान देनेवाले, कषायरहित और पंचपरमेष्ठी की भक्ति से युक्त देशव्रतधारी श्रावक सौधर्म से लेकर अच्युत ( सोलहवें) स्वर्ग तक के ही देवों की पर्याय प्राप्त कर पाते हैं। उससे ऊपर निर्ग्रन्थ मुनियों का ही गमन होता है। इससे सम्बन्धित गाथाएँ पूर्व में सवस्त्रमुक्तिनिषेध शीर्षक १ के अन्तर्गत उद्धृत की जा चुकी हैं। इससे स्पष्ट है कि तिलोयपण्णत्ती गृहिलिंग से मुक्ति की मान्यता को अमान्य करती है, जो श्वेताम्बरों और यापनीयों की मान्यता है । यह तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरीयग्रन्थ होने के अनेक प्रमाणों में से एक प्रमाण है। ४ अन्यलिंगिमुक्तिनिषेध यापनीय और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ जैनेतर लिंग से भी मुक्ति स्वीकार करती हैं । हरिभद्रसूरि ने इसके समर्थन में परिव्राजकों का उदाहरण दिया है - " अन्यलिङ्गसिद्धाः परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धाः । १० अर्थात् परिव्राजक आदि साधुओं के लिंग से सिद्ध होनेवाले अन्यलिंग से सिद्ध हैं । किन्तु तिलोयपण्णत्ती में कहा गया हैचरया परिवज्जधरा मंदकसाया कमसो भावणपहुदी जम्मंते पियंवदा केई । अनुवाद - " मन्दकषायी और प्रियभाषी कितने ही चरक और परिव्राजकं साधु क्रमशः भवनवासी देवों से लेकर ब्रह्मकल्प तक के देवों में जन्म लेते हैं।" तणुदंडणादिसहिया जीवा जे अमंदकोहजुदा । कमसो भावणपहुदी केई जम्मंति अच्चुदं जाव ॥ ८/५८७ ॥ बम्हकप्पंतं ॥ ८/५८५ ॥ अनुवाद – " जो कायक्लेशादि तप करनेवाले, अमन्दक्रोधयुक्त आजीवक आदि साधु हैं, वे भवनवासियों से लेकर अच्युतस्वर्ग तक के देव बनते हैं । " अच्युतस्वर्ग से ऊपर केवल जिनलिंगधारी साधु ही जा सकते हैं, यह प्रतिपादित करनेवाली गाथाएँ (८/५८३-८४) पूर्व में उद्धृत की जा चुकी हैं। Jain Education International इस तरह तिलोयपण्णत्ती में अन्यलिंग से भी मुक्ति का निषेध किया गया है, जो श्वेताम्बर और यापनीय मान्यताओं का निषेध है। तब यह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता । केवलिभुक्तिनिषेध तिलोयपण्णत्ती में केवलीभुक्ति का भी स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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