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________________ अ०१५/प्र०२ मूलाचार / २२३ सकल कर्मों की निर्जरा नहीं होती। इसलिए जिनेन्द्रदेव ने श्रमणियों के लिए उनके अनुरूप वस्त्रावरण-सहित द्रव्य-लिंग निर्दिष्ट किया है। श्रमणियाँ कुल, रूप और वय से युक्त होती हैं और उनके लिए समाचार (आचार) भी शास्त्रों में स्त्रियों के ही योग्य विहित किया गया है।" मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने भी मुनि के लिए 'संयत' और आर्यिका के लिए 'संयती' विशेषणों का प्रयोग किया है-'आर्याणां संयतीनाम्' (गा. १७७)। ये 'श्रमणी' और 'संयती' दोनों विशेषण 'विरती' के पर्यायवाची हैं। मुनि और आर्यिका के लिए समान विशेषणों का प्रयोग करते हुए भी इन दिगम्बराचार्यों ने उन्हें एक ही श्रेणी में नहीं रखा, क्योंकि वे मुनि को तो तद्भवमोक्ष के योग्य मानते हैं, किन्तु आर्यिका को नहीं। आचार्य वट्टकेर ने भी स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, इसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। इससे सिद्ध है कि आर्यिकाओं को 'विरती' शब्द से अभिहित करते हुए भी वे उन्हें मुनियों की श्रेणी में नहीं रखते। अतः यह निष्कर्ष सर्वथा असत्य है कि वे मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं। इसलिए मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है। दिगम्बर-परम्परा में आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती माना गया है, क्योंकि उन्हें महाव्रतों की औपचारिक दीक्षा दी जाती है। औपचारिक दीक्षा का अर्थ है वस्त्रत्याग में असमर्थ रहते हुए तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होते हुए भी स्त्री को आंशिक महाव्रत और तदनुसार एक साड़ीवाला अल्पपरिग्रहात्मक लिंग (वेश) प्रदान करना। इसका प्रयोजन है वास्तव में महाव्रती न होते हुए भी महाव्रती सदृश होने की प्रतीति कराना और इससे यह द्योतित करना कि यह औपचारिक दीक्षा परम्परया मोक्ष की साधक है। आर्यिका के उपचार-महाव्रत यद्यपि बाह्य महाव्रत हैं, तथापि उनकी साधना बहुत कठिन है। एक साड़ी धारण करने के कारण यद्यपि मुनिवत् शीतोष्ण-दंशमशकादि परीषहों के सहन का कठोर तप आर्यिका को नहीं करना पड़ता तथा स्त्रीशरीर एवं सवस्त्रता के कारण अहिंसा एवं अपरिग्रह महाव्रतों का भी पालन मुनिवत् नहीं होता, तथापि सत्य, अस्तेय एवं ब्रह्मचर्य महाव्रतों का पालन मुनितुल्य ही होता है। अतः आंशिक द्रव्यसंयम की अपेक्षा आर्यिका की विरती, संयती और श्रमणी संज्ञाएँ उपचार से युक्तिसंगत हैं। यद्यपि यह द्रव्यसंयम (उपचार-महाव्रत) मोक्ष का साक्षात् मार्ग नहीं है और न स्त्रीशरीर से मोक्ष की साक्षात् साधना के योग्य संयतगुणस्थान प्राप्त किया जा सकता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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