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________________ द्वितीय प्रकरण यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता का उद्घाटन यतः पूर्वोक्त प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि मूलाचार दिगम्बरमत का ग्रन्थ है, अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये हेतु या तो असत्य हैं या हेत्वाभास हैं। इस का निर्णय नीचे किया जा रहा है। "विरती' शब्द का प्रयोग उपचार से यापनीयपक्ष प्रेमी जी कहते हैं-"मूलाचार में मुनियों के लिए 'विरत' और आर्यिकाओं के लिए 'विरती' शब्द का उपयोग किया गया है।२८--- इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रन्थकर्ता मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में रखते हैं।" ( जै.सा.इ./द्वि.सं./ पृ.५५२)। अर्थात् मुनियों के समान आर्यिकाओं को भी तद्भव (जो शरीर पाया है उससे) मोक्ष का पात्र मानते हैं। दिगम्बरपक्ष आचार्य कुन्दकुन्द ने भी मुनियों को 'श्रमण' और आर्यिकाओं को 'श्रमणी' शब्द से अभिहित किया है। आर्यिकाओं के लिए 'श्रमणी' शब्द का प्रयोग प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथाओं में द्रष्टव्य है जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता। घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा॥ ३/२४/१३॥ तम्हा तं पडिरूवं लिंग तासिं जिणेहिं णिहिटुं। कुलरूववओजुत्ता समणीओ तस्समाचारा॥ ३/२४/१४॥२९ अनुवाद-"भले ही स्त्री सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो, सूत्र का अध्ययन करती हो और घोर तप एवं चारित्र का पालन करती हो, किन्तु उसके तद्भवमोक्ष के योग्य २८. णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयम्हि चिट्ठदु । तत्थ णिसेज्जउवट्ठणसज्झायाहारभिक्खवोसरणं ॥ १८० ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध। २९. प्रवचनसार / आ.जयसेन द्वारा निर्दिष्ट गाथाएँ। तृतीय अधिकार / पृ. २७७-२७८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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