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४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १३ / प्र० १
देशविरत - गुणस्थानवर्ती श्रावक के बालपण्डितमरण का लक्षण और फल बतलाते हुए भगवती - आराधनाकार कहते हैं—
आलोचिदणिसल्लो सघरे - चेवारुहितु संथारं । जदि मरदि देसविरदो तं वुत्तं
वेमाणिएस कप्पोवगेसु णियमेण णियमा सिज्झदि उक्कस्सएण वा
२०८० ॥
अनुवाद - " यदि देशविरत ( श्रावक) विधिपूर्वक आलोचना करके, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों से मुक्त होकर अपने घर में संस्तर पर आरूढ़ होकर मरता है, तो उसे बालपण्डितमरण कहते हैं । ( २०७८ ) । वह श्रावक मरकर नियम से सौधर्मादि कल्पोपन्न वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और अधिक से अधिक सात भवों में निश्चितरूप से मुक्त हो जाता है । " (२०८०) ।
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बालपंडिदयं ॥ २०७८ ॥
इस कथन से स्पष्ट है कि गृहिलिंग से मुक्ति नहीं होती । गृहस्थ यदि बद्धायुक नहीं है, तो अपने अणुव्रतादि के द्वारा नियम से देवगति ही प्राप्त करता है। इस तरह गुणस्थान सिद्धान्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत (पंचम) गुणस्थान तक के जीवों की मुक्ति का निषेधक है। इससे अन्यलिंगी की भी मुक्ति का निषेध हो जाता है, क्योंकि वह मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान में स्थित होता है । ४६ ग्रन्थकार भगवती आराधना में आगे कहते हैं
।
तस्स उववादो सत्तमम्मि भवे ॥
साहू
हुत्तचा वट्टंतो अप्पमत्तकालम्मि । ज्झाणं उवेदि धम्मं पविट्टुकामो खवगसेटिं ॥ २०८२ ॥
४६. एक्कं पि अक्खरं जो अरोचमाणो मरेज्ज जिणदिट्ठे ।
अरोचंतो ॥
सो वि कुजोणि- णिवुड्डो किं पुण सव्वं पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठी
संजोयणाकसाए खवेदि झाणेण तेण सो पढमं ।
मिच्छत्तं सम्मिस्सं कमेण सम्मत्तमवि य तदो ॥ २०८६॥
अनुवाद - " शास्त्रोक्तमार्ग पर चलता हुआ साधु क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की इच्छा से अप्रमत्तगुणस्थान में धर्मध्यान करता है। धर्मध्यान से वह पहले अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है, तत्पश्चात् क्रमशः मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों का। इस प्रकार सात प्रकृतियों का क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि
सुत्तणिद्दिद्वं । मुणेयव्वो ॥
६१ ॥ भगवती - आराधना ।
३८ ॥ भगवती - आराधना ।
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