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________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ४३ द्वारा उसने तीर्थंकर-प्रकृति का भी बन्ध किया।३ किन्तु बाँधे गये स्त्रीगोत्रनामकर्म का स्त्रीपर्यायरूप फल उसे दूसरे भव में नहीं मिला, अपितु उसने जयन्त नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय प्राप्त कर ली।" उस देवपर्याय से च्युत होने पर तीर्थंकर मल्लीकुमारी के रूप में उसने स्त्रीपर्याय प्राप्त की और मुक्त हो गया। इस प्रकार मायाचार का उसे कोई दुष्परिणाम नहीं भोगना पड़ा। न तो वह रत्नत्रय से च्युत हुआ, न तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध से वंचित हुआ, न आगामी भव में उसने दुःखमय स्त्रीपर्याय प्राप्त की। जब तीसरे भव में वह स्त्री हुआ, तब स्त्री शरीर के साथ उसे अत्यन्त महिमामयी तीर्थंकरपर्याय प्राप्त हुई, जिसमें दुःख का नामोनिशाँ नहीं था, बल्कि मोक्ष की सम्पूर्ण सामग्री उपलब्ध थी। महाबल की पर्याय में मायाशल्य रहते हुए भी वह व्रती बना रहा, 'निःशल्यो व्रती' (त.सू.७ / १८) का नियम उस पर लागू नहीं हुआ। किन्तु, भगवती-आराधना में पुष्पदन्ता नामक आर्यिका की कथा है। वह मायाचार करती है, तो रत्नत्रय से भ्रष्ट हो जाती है और मरकर दूसरे ही भव में सागरदत्त नाम के वणिक के यहाँ महादुर्गन्धदेहवाली पूतिमुखी नाम की दासी बनती है।५ मायाचार के परिणाम के विषय में यह मतभेद भगवती-आराधना को यापनीयमान्य श्वेताम्बरआगमों का प्रतिपक्षी सिद्ध करता है। गुणस्थानानुसार कर्मक्षय का निरूपण भगवती-आराधना के यापनीयग्रन्थ न होने का एक अन्य प्रमाण है उसमें गुणस्थानसिद्धान्त की उपलब्धि। षट्खण्डागम के अध्याय में सप्रमाण दर्शाया गया है कि यह सिद्धान्त श्वेताम्बरों और यापनीयों को मान्य नहीं है, क्योंकि यह उनके सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और परलिंगिमुक्ति के सिद्धान्तों के विरुद्ध है। गुणस्थान-सिद्धान्त के अनुसार गुणस्थानक्रम से ही कर्मों का क्रमिक क्षय होता है और चौदहवें गुणस्थान के अन्त में सम्पूर्ण कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। ४३. "इमेहि य वीसाएहि य कारणेहि आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु तं जहा...।" वही / अध्याय ८/ पृष्ठ २१७। ४४. "तएं णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा -- जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना।" वही । अध्याय ८/ पृष्ठ २२० । ४५. पब्भट्टबोधिलाभा मायासल्लेण आसि पूदिमुही। दासी सागरदत्तस्स पुष्पदंता हु विरदा वि॥ १२८०॥ भगवती-आराधना। इसकी कथा 'बृहत्कथाकोश' में क्रमांक ११० पर है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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