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________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २०३ माना गया है, क्योंकि यापनीयों के अनुसार इन मूलगुणों से रहित स्थविरकल्पियों (सवस्त्र साधुओं), गृहस्थों, परलिंगियों तथा स्त्रियों की भी मुक्ति हो सकती है। किसी भी उपलब्ध यापनीयग्रन्थ में मुनियों के लिए उक्त २८ मूलगुणों का विधान नहीं है। यद्यपि यापनीयपरम्परा में जिनकल्पी साधु नग्न रहते थे, पर यह मोक्ष के लिए आवश्यक मूलगुण के रूप में मान्य नहीं था, क्योंकि उनके मत में नग्नत्व के बिना भी मोक्ष संभव है। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्वयं स्त्रीनिर्वाणप्रकरण की निम्न-लिखित दस कारिकाओं में नग्नत्व को मूलगुण मानने से इनकार किया है अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवद् यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । न विरुध्यति हि रत्नत्रयसम्पद् निर्वृतेर्हेतुः॥ २॥ अनुवाद-"स्त्री की मुक्ति होती है, क्योंकि उसमें मोक्ष के सभी हेतु विद्यमान होते हैं। मोक्ष का हेतु रत्नत्रय है और स्त्री में उसके होने में कोई विरोध नहीं है।" वस्त्राद् न मुक्तिविरहो भवतीत्युक्तं, समग्रमन्यच्च। रत्नत्रयाद् न वाऽन्यद् युक्त्यङ्गं शिष्यते सद्भिः॥ २१॥ अनुवाद-"वस्त्रधारण करने से मुक्ति का अभाव नहीं होता, यह आगम में बहुशः कहा गया है। इसके अतिरिक्त आचार्यों का कथन है कि रत्नत्रय के सिवाय मोक्ष का और कोई हेतु (मूलगुण) शेष नहीं रहता।" (यहाँ 'युक्त्यङ्ग' के स्थान में मुक्त्यङ्गं होना चाहिए।) - यदि वस्त्रादविमुक्तिः , त्यजेत तद्, अथ न कल्पते हातुम्। उत्सङ्गप्रतिलेखनवद् अन्यथा देशको दूष्येत॥१०॥ अनुवाद-"यदि वस्त्रधारण करने से मोक्ष नहीं होता, तो उनका त्याग आवश्यक होता, किन्तु जिनेन्द्र ने स्त्री को उनके त्यागने का निषेध किया है-'जिणकप्पिया इत्थी न होइ' (बृहत्कल्पसूत्र ५ / २६)। इससे सिद्ध है कि स्त्री के लिए प्रतिलेखन (रजोहरण) के समान वस्त्र संयम के साधन हैं। यदि संयम के साधन न होते, तो उनके अत्याग का उपदेश देनेवाले जिनेन्द्र दोष के पात्र होते। किन्तु वे दोष के पात्र नहीं हो सकते, इससे सिद्ध है कि वस्त्र संयम के उपकरण हैं।" त्यागे सर्वत्यागो ग्रहणेऽल्पो दोष इत्युपादेशि। वस्त्रं गुरुणाऽऽर्याणां परिग्रहोऽपीति चुत्यादौ॥ ११॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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