________________
२०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १५ / प्र० १
अनुवाद - " यद्यपि वस्त्र परिग्रह है, तो भी जिनेन्द्र ने आर्यिकाओं को उनके ग्रहण का उपदेश इसलिए दिया है कि वस्त्रत्याग से सम्पूर्ण संयम का त्याग हो जायेगा, किन्तु वस्त्रग्रहण से थोड़ा ही दोष लगेगा । "
यत्संयमोपकाराय
वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् । धर्मस्य हि तत्साधनमतोऽन्यदधिकरणमाहाऽर्हन् ॥ १२ ॥
अनुवाद - " जो वस्तु संयम की साधक होती है, उसे अरहन्त ने संयम का उपकरण कहा है, क्योंकि वह धर्म का साधन है। उससे भिन्न पदार्थों को भगवान् ने परिग्रह की संज्ञा दी है । "
वस्त्रं विना न चरणं स्त्रीणामित्यर्हतौच्यत, विनाऽपि । पुंसामिति न्यवार्यत (नाऽवार्यत), तत्र स्थविरादिवद् ( मुक्तिम् ) मुक्तिः ॥ १६॥
अनुवाद — "स्त्रियाँ वस्त्रग्रहण के बिना संयम की सांधना नहीं कर सकतीं, इसलिए अरहन्त ने उनके लिए वस्त्रग्रहण का उपदेश दिया है । किन्तु पुरुष वस्त्रग्रहण के बिना भी संयम के पालन में समर्थ होते हैं, अतः उनके लिए वस्त्रधारण का निषेध किया है। (तथापि सभी पुरुषों के लिए निषेध नहीं किया । जो पुरुष वस्त्रत्याग में असमर्थ होते हैं, उनके लिए अरहन्त ने स्थविरकल्प अर्थात् सवस्त्रमोक्षमार्ग निर्धारित किया है।) अतः जैसे वस्त्रधारण करनेवाले स्थविरकल्पी मुनियों को मोक्ष होता है, वैसे ही वस्त्रधारी स्त्रियों को भी संभव है । "
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि यापनीयमत में शीतादिपरीषह सहने करने में समर्थ पुरुषों को वस्त्रग्रहण का निषेध केवल इसलिए किया गया है कि, वे वस्त्रग्रहण के बिना भी संयमपालन करने में समर्थ हैं। श्री पद्मनाभ एस. जैनी ने भी उपर्युक्त श्लोक का ऐसा ही अनुवाद किया है—
"The Arhat has prescribed that, for woman, conduct (that is conduc tive to moksa) is impossible (to maintain ) unless she wears clothes. But, for men, even without (wearing clothes, such conduct is possible), therefore, he prohibited (them from wearing clothes ) . " ( Gender and Salvation, p. 61-62).
श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा में भी तीर्थंकरों द्वारा वस्त्रधारण न किये जाने का कारण यही बतलाया गया है कि उनका गुह्यप्रदेश शुभप्रभामण्डल से आच्छादित रहता है, इसलिए उन्हें वस्त्रग्रहण की आवश्यकता नहीं होती। तात्पर्य यह कि श्वेताम्बर और यापनीय मतों में तीर्थंकरों और जिनकल्पी मुनियों के द्वारा वस्त्र त्याग इसलिए
Jain Education International
१०. “जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति।” (प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति / १ / २ / ३१ / पृ.९२ ) ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org