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________________ २०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५/प्र०१ चारित्र का साधन है अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं। एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णायव्वो॥ ९१०॥ वट्टकेर ने अचेलत्व को चारित्र के विकास का साधन कहकर स्पष्ट कर दिया है कि सचेलत्व चारित्र के विकास में बाधक है, अतः वह मोक्ष का हेतु नहीं है। १.६. निर्ग्रन्थ को ही निर्वाण की प्राप्ति मूलाचार के कर्ता यह भी कहते हैं कि निर्ग्रन्थ को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है सम्मइंसणणाणेहिं भाविदा सयलसंजमगुणेहिं। णि?वियसव्वकम्मा णिग्गंथा णिव्बुदिं जंति॥ ११८७॥ अनुवाद-"सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से आत्मा को भावित कर तथा सम्पूर्ण संयम आदि गुणों के द्वारा समस्त कर्मों का विनाश कर निर्ग्रन्थ मुनि निर्वाण प्राप्त करते हैं।" आचार्य वट्टकेर ने निर्ग्रन्थ उसे कहा है, जो शरीर को वस्त्र, चर्म, वल्कल या पत्तों से आच्छादित नहीं करता तथा सभी प्रकार के परिग्रह से मुक्त रहता है। अतः स्पष्ट है कि उनके मतानुसार सचेल पुरुष या स्त्री निर्ग्रन्थ नहीं है, इसलिए उसका निर्वाण असंभव है। उन्होंने पूर्वोद्धृत 'उवधिभरविप्पमुक्का' गाथा (७९८) में भी यही बात कही है। मूलाचार के प्रणेता आचार्य वट्टकेर की इन विविध उक्तियों से सिद्ध है कि उन्हें सवस्त्रमुक्ति मान्य नहीं है। इससे यापनीय-परम्परा में जो सचेल-अपवादलिंगधारी साधुओं को मुक्ति का पात्र माना गया है, उसका निषेध हो जाता है। यह इस बात का प्रबल प्रमाण है कि मूलाचार यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है। यापनीय-अमान्य २८ मूलगुणों का विधान पूर्व में मूलाचार की दो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं, जिनमें मुनिपद के लिए आधारभूत माने गये २८ मूलगुणों का विधान है। यापनीयमत में उन्हें मूलगुण नहीं ९. "येन लिङ्गेन तच्चारित्रमनुष्ठीयते तस्य लिङ्गस्य भेदं स्वरूपं च निरूपयन्नाह-'अच्चेलक्कं लोचो।" आचारवृत्ति / पातनिका / मूलाचार / उत्त. / गा.९१० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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