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________________ ६८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ८ कल्पों की बारह संख्या भी दिगम्बरमान्य यापनीयपक्ष वरांगचरित में कल्प नामक स्वर्गों की संख्या बारह मानी गयी है, १० जबकि दिगम्बर परम्परा में सोलह । यह मान्यता जटासिंहनन्दी को यापनीयपरम्परा का सिद्ध करती है। (जै. ध. या.स./पृ. १९५) । दिगम्बरपक्ष दिगम्बरपरम्परा में कल्पों की संख्या बारह और सोलह दोनों मानी गयी है। दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में ऐसा स्पष्ट निर्देश है। दिगम्बर विद्वान् पं० जुगलकिशोर मुख्तार तथा मान्य श्वेताम्बर पण्डित सुखलाल जी संघवी ने भी यह स्वीकार किया है । उनके शब्द ' तिलोयपण्णत्ती' नामक सप्तदश अध्याय में उद्धृत किये जा चुके हैं। अतः दिगम्बरपरम्परा में बारह कल्पों को अमान्य मानने का हेतु असत्य है। इसलिए वरांगचरित में बारह कल्पों का उल्लेख होने से वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता । अ० २० / प्र० २ दिगम्बरपरम्परा में कर्मणा वर्णव्यवस्था मान्य यापनीयपक्ष वरांगचरित में जन्मना वर्णव्यवस्था का निषेध कर कर्मणा वर्णव्यवस्था स्वीकार की गई है। यथा Jain Education International क्रिया - विशेषाद्व्यवहार - मात्राद्दयाभिरक्षा - कृषि - शिल्प - भेदात् । शिष्टाश्च वर्णांश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥ २५ / ११॥ यह भी कहा गया है कि ज्ञान, शील और गुण से युक्त पुरुष को ही ब्रह्मविदों ने ब्राह्मण कहा है। व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कण्ठ, शस्त्रविद्या और शारीरिक शक्ति के उद्गमभूत द्रोणाचार्य एवं पराशर, इन सब ने अपने गुणों के बल से ही ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था । ११ १०.“द्विषट्प्रकाराः खलु कल्पवासाः । " ९ / २ / वरांगचरित । ११. विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः । ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥ २५ / ४३ ॥ व्यासो वसिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्त्युद्गमौ द्रोणपराशरौ च । आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायुः प्रतिसम्पदाभिः ॥ २५/४४ ॥ वरांगचरित । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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