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________________ अ०२०/प्र०२ वराङ्गचरित / ६७९ तथा वरांगचरित (३१/१८) में जो यह कहा गया है कि वरांग मुनि ने अल्पकाल में 'आचार', 'प्रकीर्णक' आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था, सो इन ग्रन्थों का अस्तित्व दिगम्बरपरम्परा में भी मान्य है। अतः इन्हें केवल श्वेताम्बरग्रन्थ मानना न्यायसंगत नहीं है। ७ विमलसूरि के पउमचरिय का अनुकरण नहीं यापनीयपक्ष जटासिंहनन्दी ने श्वेताम्बराचार्य विमलसूरि के 'पउमचरियं' का भी अनुकरण किया है। पउमचरियं के समान वरांगचरित में भी देशावकाशिकव्रत का अन्तर्भाव दिग्व्रत में मानकर उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सल्लेखना को बारहवाँ शिक्षाव्रत माना गया है। (वरांगचरित २२/२९-३०, १५/१११-१२५)। कुन्दकुन्द ने भी इस परम्परा का अनुसरण किया है। कुन्दकुन्द विमलसूरि से तो निश्चित ही परवर्ती हैं और संभवतः जटासिंहनन्दी से भी। अतः उनके द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है। विमलसूरि के पउमचरियं का अनुसरण रविषेण, स्वयम्भू आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है, अतः जटासिंहनन्दी के यापनीय होने की सम्भावना प्रबल प्रतीत होती है। (जै.ध.या.स./१९४-१९५)। दिगम्बरपक्ष विमलसूरि का समय श्वेताम्बराचार्यों ने ही वि० सं० ५३० (४७३ ई०) माना है। और इसे ही सब दृष्टियों से समुचित बतलाया है। तथा कुन्दकुन्द का समय ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी है, यह दशम अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। अतः पूर्ववर्ती कुन्दकुन्द के द्वारा परवर्ती विमलसूरि का अनुसरण किया जाना स्वप्न में भी संभव नहीं है। इसी प्रकार जटासिंहनन्दी ईसा की सातवीं शताब्दी में हुए थे। अतः वे भी कुन्दकुन्द से सात सौ वर्ष उत्तरवर्ती हैं। इससे सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दी ने कुन्दकुन्द का ही अनुसरण करते हुए सल्लेखना को चार शिक्षाव्रतों में परिगणित किया है। पुनः रविषेण और स्वयम्भू दोनों दिगम्बर थे, इसके प्रमाण प्रस्तुत ग्रन्थ के तन्नामक अध्यायों में द्रष्टव्य हैं। अतः न तो यह सत्य है कि जटासिंहनन्दी ने विमलसूरि का अनुसरण किया है और न यह सत्य है कि रविषेण और स्वयम्भू यापनीय थे। इस प्रकार वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये ये दोनों हेतु असत्य हैं। फलस्वरूप वरांगचरित का दिगम्बरग्रन्थ होना असिद्ध नहीं होता। ९. साध्वी संघमित्रा : 'जैनधर्म के प्रभावक आचार्य'/ पृ. २४५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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