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४८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र० १
दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिंशिकाओं में से किसी के भी कर्ता होने चाहिये। अतः इन तीनों द्वात्रिंशिकाओं को सन्मतिसूत्र के कर्ता आचार्य सिद्धसेन की जो कृति माना जाता है, वह ठीक और सङ्गत प्रतीत नहीं होता। इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन हैं, जो केवली के विषय में युगपद् उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद्-उपयोगवादिता का समर्थन हरिभद्राचार्य के उक्त प्राचीन उल्लेख से भी होता है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ. १३५ - १३७) ।
५. ३. निश्चयद्वात्रिंशिका एकोपयोगवाद-विरोधी, युगपद्वादी
“ १९वीं निश्चयद्वात्रिंशिका में "सर्वोपयोग-द्वैविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्" इस वाक्य के द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवों के उपयोग का द्वैविध्य अविनश्वर है ।' अर्थात् कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छद्मस्थज्ञानी हो या केवली, सभी के ज्ञान और दर्शन दोनों प्रकार के उपयोगों का सत्त्व होता है । यह दूसरी बात है कि एक में वे क्रम से प्रवृत्त ( चरितार्थ ) होते हैं और दूसरें में आवरणाभाव के कारण युगपत्। इससे उस एकोपयोगवाद का विरोध आता है, जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्र में केवली को लक्ष्य में लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है । ऐसी स्थिति में यह १९वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन की कृति मालूम नहीं होती।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / पृ. १३७) ।
५.४. निश्चयद्वात्रिंशिका मति श्रुतभेद - अवधि - मन:पर्ययभेद-विरोधी
" उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १९ में श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से अलग नहीं माना हैं, लिखा है कि “मतिज्ञान से अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नहीं है, श्रुतज्ञान को अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोष को लिये हुए है।" और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का अभेद प्रतिपादन किया है । इसी तरह अवधिज्ञान से भिन्न मनःपर्यायज्ञान की मान्यता का भी निषेध किया है, लिखा है कि " या तो द्वीन्द्रियादिक जीवों के भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघात के कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते हैं, मनःपर्यायविज्ञान का मानना युक्त होगा अन्यथा मनः पर्यायज्ञान कोई जुदी वस्तु नहीं है ।" इन दोनों मन्तव्यों के प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार हैं
वैयर्थ्याऽतिप्रसंगाभ्यां न मत्यधिकं श्रुतम् । सर्वेभ्यः
प्रार्थना - प्रतिघाताभ्यां मनः पर्यायविज्ञानं युक्तं तेषु न
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केवलं चक्षुस्तमः क्रम - विवेककृत् ॥ १३ ॥
चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः ।
वाऽन्यथा ॥ १७ ॥ (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १३७)
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