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छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७५ शब्द श्रावक के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और उपर्युक्त श्वेताम्बरीय प्रमाणों से भी वह श्रावक का ही वाचक सिद्ध होता है।
६. दिगम्बरमत में क्षुल्लक और एलक अणुव्रतधारी श्रावक ही होते हैं, सम्पूर्ण दिगम्बरजैन-साहित्य इसका गवाह है। प्रत्यक्ष प्रमाण के लिए रविषेणकृत 'पद्मपुराण' (१९) एवं 'बृहत्कथाकोश' (२३) नामक पूर्व अध्याय द्रष्टव्य हैं। रविषेण ने पद्मपुराण में क्षुल्लक को अणुव्रतधारी बतलाया है। और बृहत्कथाकोश में उसे श्रावक कहा गया है तथा यह कथा वर्णित है कि मोक्षाभिलाषी दो राजकुमार गुरु के आदेश से परीषह-सहन के अभ्यास हेतु पहले क्षुल्लकदीक्षा ग्रहण करते हैं, पश्चात् क्षुल्लकपद का परित्याग कर मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। इन वचनों से सिद्ध है कि क्षुल्लक अणुव्रतधारी होने से श्रावक ही होता है। अतः जब इन ग्रन्थों में देशयति और क्षुल्लक को स्पष्ट शब्दों में श्रावक ही कहा गया है, तब उसे श्रावक न मानकर श्रमण कहना डॉक्टर सा० के ही शब्दों में आग्रहबुद्धि का परिचायक है।
७. किसी भी यापनीयग्रन्थ में श्रमण से भिन्न एलक-क्षुल्लक नामक व्रतियों का उल्लेख नहीं है। तथा उक्त परम्परा में उनका अस्तित्व हो भी नहीं सकता, क्योंकि उसमें सवस्त्र व्रतियों को भी 'मुनि' संज्ञा दी गई है। श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा में क्षुल्लक (खुड्डग) शब्द का प्रयोग नवदीक्षित युवा मुनि के लिए किया गया है,० उत्कृष्ट श्रावक के लिए नहीं। अतः जिस परम्परा में क्षुल्लक-एलक नामक व्रतियों का भेद ही मान्य नहीं था, उसके बारे में यह कहना कि वह क्षुल्लक-एलक को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के अन्तर्गत रखती थी, नितान्त असंगत और निराधार कथन है। चूँकि क्षुल्लक-एलक यापनीय-परम्परा के पारिभाषिक शब्द नहीं है, इसलिए इनका वाचक 'देशयति' शब्द भी यापनीय-परम्परा का पारिभाषिक शब्द नहीं है। फलस्वरूप छेदपिण्ड में उसका प्रयोग होने से उसे यापनीयग्रन्थ कहना अप्रामाणिक कथन है।
इस प्रकार उपर्युक्त दस प्रमाणों से सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ है, यापनीय-परम्परा का नहीं।
७. देखिये, अध्याय १९/ प्रकरण १/शीर्षक २ 'वस्त्रमात्रपरिग्रहधारी की क्षुल्लक संज्ञा।' ८. देखिये, अध्याय २३/ शीर्षक ३ 'सवस्त्रमुक्तिनिषेध' के अन्तर्गत 'सवस्त्रमुक्ति-निषेध के अन्य
प्रमाण' अनुच्छेद क्र.७। ९. देखिये, अध्याय २३ / शीर्षक २ 'गृहस्थमुक्तिनिषेध'। अनुच्छेद क्र.३। १०. देखिये, अध्याय ११/प्रकरण /४/ शीर्षक १०.३ 'श्वेताम्बरग्रन्थों में एक ही भव में उभय
वेदपरिवर्तन भी मान्य।'
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