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________________ ४४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ के विषय में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि उस परम्परा का ऐसा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिससे इस विषय में कुछ पता चल सके। श्वेताम्बरपरम्परा को ही यापनीयपरम्परा मानकर चला जाय, तो सिद्ध है कि यापनीयपरम्परा में भी उपर्युक्त नाम के आचार्यों के स्वर्गस्थ होने के साथ-साथ अंगों और पूर्वो के उत्तरोत्तर विच्छेद होने की मान्यता का अभाव था। तब तिलोयपण्णत्ती में उपर्युक्त प्रकार के श्रुतविच्छेद का उल्लेख होना निश्चितरूप से यापनीयपरम्परा के विरुद्ध है। अतः सिद्ध है कि यापनीयपरम्परा-विरोधी मान्यताओं का प्रतिपादक ग्रन्थ यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता। डॉ० सागरमल जी भी मानते हैं कि आगमविच्छेद का उल्लेख यापनीयमत के विरुद्ध है। वे लिखते हैं-"यतिवृषभ को यापनीय मानने में एकमात्र बाधा यह है कि उनकी तिलोयपण्णत्ती में आगमों के विच्छेद का जो क्रम दिया है, वह यापनीयपरम्परा के अनुकूल नहीं है।" (जै.ध.या.स./११५)। किन्तु वे तिलोयपण्णत्ती को येन केन प्रकारेण यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने पर तुले हुए थे, इसलिए उन्होंने यह घोषित कर दिया कि उपर्युक्त उल्लेख प्रक्षिप्त है अथवा यापनीय भी आगमविच्छेद मानने लगे थे। (जै.ध.या.सं./पृ.११६) उनके इस कथन की असत्यता के प्रमाण द्वितीय प्रकरण में प्रस्तुत किये जायेंगे। कल्पों की संख्या १२ और १६ दोनों मान्य तिलोयपण्णत्तिकार ने बतलाया है कि कल्पों की संख्या के विषय में आचार्यों के दो मत हैं। कोई आचार्य कल्पों की संख्या १२ बतलाते हैं और कोई १६। देखिए बारस कप्पा केई, केई सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणि कप्पातीदाणि पडलाणि॥ ८/११५॥ यतिवृषभ ने बारहकल्पों के भी नाम बतलाये हैं और सोलह कल्पों के भी। (ति.प./८/१२०, १२७-१२८)। यतः तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि का निषेध किया गया है, इससे सिद्ध है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है और इसके कर्ता ने कल्पों की संख्या के विषय में दो मत बतलाये हैं और उनमें से किसी का भी अपनी तरफ से निषेध नहीं किया, इससे स्पष्ट होता है कि ये दोनों मत दिगम्बराचार्यों के हैं, अतः उसे दोनों स्वीकार्य हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी स्वीकार किया है कि "दिगम्बर सिंहनन्दी ने वरांगचरित में स्वर्गसंख्या १२ दी है, इसलिए दिगम्बर-सम्प्रदाय में इस संख्या का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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