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________________ अ०१७/प्र०१ तिलोयपण्णत्ती / ४४३ आगमों के विच्छेद का कथन तिलोयपण्णत्ती में यह कथन है कि उपर्युक्त दिगम्बर आचार्यों की परम्परा में आचार्यों के स्वर्गारोहण के साथ-साथ अंगों और पूर्वो का ज्ञान क्रमशः विच्छिन्न होता गयां और वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद सभी आचार्य सभी अंगों और पूर्वो के एकदेश के धारी हुए। यथा - जम्बूस्वामी अन्तिम अनुबद्ध केवली हुए (ति.प./४/१४८९)। उनके मोक्ष चले जाने पर क्रमशः नन्दी (विष्णु), नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु बारह अंगों के धारक होते हुए चौदहपूर्वी नाम से प्रसिद्ध हुए। अंत में भद्रबाहु के स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञान का धारक श्रुतकेवली कोई नहीं रहा। (ति.प./४/१४९४९६)। उनके बाद विशाख आदि ग्यारह आचार्य दस पूर्वो के धारी हुए। इन सबके स्वर्गवासी हो जाने पर कोई दसपूर्वधारी नहीं हुआ। (ति.प./४/१४९७-९९)। किन्तु उनके बाद नक्षत्र आदि पाँच आचार्य ग्यारह अंगों के धारी हुए। वे चौदह पूर्वो के एकदेश के भी धारी थे। उनके स्वर्गस्थ हो जाने पर फिर कोई ग्यारह अंगों का धारक नहीं रहा। (ति.प./४/ १५००-१)। तत्पश्चात् सुभद्र आदि चार आचार्य केवल आचारांग के धारक हुए। वे आचारांग के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो के एकदेश के भी धारक थे। इनके स्वर्गगत हो जाने पर भरतक्षेत्र में आचारांग के पूर्ण ज्ञान का धारक कोई नहीं हुआ। (ति.प./४/१५०२-४)। तिलोयपण्णत्तिकार अन्त में कहते हैं कि इन आचार्यों के स्वर्गस्थ हो जाने के बाद (वीर नि० सं० ६८३ के पश्चात्) सभी अंगों और पूर्वो के एकदेश की ज्ञानाधारा क्रमशः क्षीण होती हुई पंचमकाल की शेष अवधि अर्थात् (२१०००-६८३) = २०,३१७ वर्ष पर्यन्त प्रवाहित होती रहेगी। तत्पश्चात् श्रुततीर्थ का सर्वथा व्युच्छेद हो जायेगा। (ति.प./४/१५०५)। श्रुत विच्छेद का ठीक इसी प्रकार का वर्णन वीरसेन स्वामी ने भी धवला और जयधवला में किया है।१ उपर्युक्त नाम के आचार्यों के क्रमशः स्वर्गगत होने पर अंगों और पूर्वो का ज्ञान उत्तरोत्तर विच्छिन्न होता गया, ऐसी मान्यता श्वेताम्बरपरम्परा में नहीं है। यापनीयपरम्परा ११. धवला/ ष. खं/पु.१ / पृ.६६-६८, जयधवला / क.पा./भा.१/ पृ.७७-८०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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