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१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ हैं। यदि कहा जाय कि स्थविरकल्पी को भूतार्थग्राही-नय से महासम्पत्तिवान् एवं परिवारयुक्त कहा गया है, तो यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि भगवती-आराधना में सवस्त्र-स्थविरकल्प स्वीकार ही नहीं किया गया है, तब स्थविरकल्पी को भूतार्थग्राही नय से सम्पत्तिवान्, परिवारयुक्त आदि कहे जाने की बात वैसी ही है, जैसे बन्ध्यापुत्र को सुन्दर या असुन्दर कहा जाय। अतः इन विशेषणों से श्रावक का ही अपवादलिंगधारी कहा जाना युक्तिमत् सिद्ध होता है।
५. प्रेमी जी ने इस तथ्य पर भी दृष्टि नहीं डाली कि शिवार्य के टीकाकार अपराजित सूरि ने श्राविका को स्पष्ट शब्दों में अपवादलिंगस्थ कहा है, अतः इस न्याय से श्रावक का ही अपवादल्लिंगधारी कहा जाना घटित होता है।
६. उन्होंने इस बात का भी विचार नहीं किया कि शिवार्य ने विरत और अविरत दोनों को भक्तप्रत्याख्यान के योग्य बतलाया है और भक्त प्रत्याख्यानकालीन लिंगों का निर्देश भक्तप्रत्याख्यान-योग्य व्यक्तियों के लिए ही किया है, इसलिए अपवादलिंग का सम्बन्ध अविरत (श्रावक-श्राविका) से ही है।
प्रेमी जी यदि इन तथ्यों पर ध्यान देते, तो उन्हें उक्त महाभ्रान्ति नहीं होती। वे यह भली-भाँति देख पाते कि शिवार्य ने श्रावक-श्राविका के ही लिंग को अपवादलिंग कहा है। फलस्वरूप उनसे एक महत्त्वपूर्ण दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ घोषित करने की एतिहासिक भूल न होती। ___पं० नाथूराम जी प्रेमी के उपर्युक्त निष्कर्ष को गलत सिद्ध करनेवाले और भी अनेक तथ्य भगवती-आराधना और उसकी विजयोदया टीका में उपलब्ध होते हैं। उनका वर्णन नीचे किया जा रहा है। १.५. टीका में श्वेताम्बरमान्य सचेललिंग के दोषों का निरूपण
प्रेमी जी ने अपने पूर्वोद्धृत वक्तव्य में भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि के निम्नलिखित वचन उद्धृत किये हैं-"वसनसहितलिङ्गधारिणो हि वस्त्रखण्डादिकं शोधनीयं महत्। इतरस्य पिच्छिादिमात्रम्" (गा.८२/ पृ.११८) और कहा है कि इन वचनों से सिद्ध होता है कि भगवती-आराधना में मुनि के लिए सचेल अपवादमार्ग का विधान है। प्रेमी जी की यह मान्यता उनकी पूर्वकथित महाभ्रान्ति का ही अंग है। अपराजित सूरि ने उक्त वचन भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा की टीका में व्यक्त किये हैं
गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च। संसज्जणपरिहारो परिकम्मविवज्जणा चेव॥ ८२॥
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