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________________ अ०२० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७३ अपरं च तपोधनानाममितप्रभावा गणाग्रणी संयमनायका सा। मुनीन्द्रवाक्याच्छ्मणार्जिकाभ्यो दिदेश धर्मं च तपोविधानाम् ॥ ३१/६॥ अनुवाद-"श्री वरदत्त केवली के समीप उपस्थित आर्यिकाओं में एक प्रधान आर्यिका थीं, जिनका सभी तपोधनाओं (आर्यिकाओं) में अमित प्रभाव था। वे संयम की नेत्री थीं। महाराज वरदत्त के आदेश से उन्होंने नवदीक्षित श्रमणार्जिकाओं (श्रमणा अर्जिकाओं) को धर्म और तप की विधियाँ सिखा दी।" 'श्रमण' शब्द के स्त्रीलिंग में 'श्रमणा' और 'श्रमणी' दोनों रूप बनते हैं। (देखिये, वामन शिवराम आप्टे-कृत संस्कृत-हिन्दी-कोश)। इन दोनों उदाहरणों में श्रमणार्जिका शब्द आया है और यहाँ मुनियों से कोई तात्पर्य नहीं है। क्योंकि पहले उदाहरण में मुनि वरदत्त और उनके साथ बैठे हुए मुनियों को प्रणाम करने के बाद आर्यिकाओं को ही प्रणाम करना शेष रहता है। अतः वहाँ 'श्रमणा' शब्द के स्थान में 'श्रमण' शब्द मानकर उसका प्रयोग मुनि-अर्थ में मानने से पुनरावृत्ति दोष का प्रसंग आता है। फलस्वरूप वह वहाँ 'अर्जिका' के विशेषण रूप में ही प्रयुक्त हुआ है। इसकी पुष्टि दूसरे उदाहरण से होती है। दूसरे उदाहरण में कहा गया है कि गणिनी आर्यिका ने वरदत्त महाराज के आदेश से श्रमणार्जिकाओं को धर्म और तप की विधियाँ सिखा दीं। यहाँ 'श्रमणा' शब्द के स्थान में 'श्रमण' शब्द मानकर उससे मुनि-अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि यह इकतीसवें सर्ग का श्लोक नवदीक्षित नरेन्द्रपत्नियों के प्रसंग में आया है। ३१वें सर्ग का आरंभ राजा वरांग की नवदीक्षित पत्नियों और उनके साथ दीक्षित हुई अन्य स्त्रियों की तपस्या के वर्णन से होता है और १६वें श्लोक तक चलता है। उसके अन्तर्गत यह छठवाँ श्लोक है, जिसमें 'श्रमणार्जिका' शब्द आया है। अतः यहाँ आर्यिकाओं को ही गणिनी आर्यिका के द्वारा धर्मविधि सिखाने का प्रसंग है, किसी मुनि को नहीं। दूसरी बात यह है कि मुनि का पद आर्यिकाओं से उच्च होता है, इसलिए पंचमगुणस्थानवर्ती आर्यिका के द्वारा षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनियों को उपदेश दिया जाना न तो दिगम्बरमत की मर्यादा के अनुकूल है, न श्वेताम्बरमत की। अतः सिद्ध है कि उपर्युक्त उदाहरणों में 'श्रमणा' शब्द अर्जिका के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है और उसका प्रयोजन है आर्यिकाओं के श्रमणत्व को रेखांकित करना, जैसा कि वरांगचरितकार के 'महेन्द्रपल्यः श्रमणत्वमाप्य' (३१/११३) इस प्रयोग से संकेतित होता है। (देखिये, प्रकरण १, शीर्षक ३)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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