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________________ ९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० २ ''' प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। इसी तरह ४०७ नम्बर की गाथा में १२२ निर्यापक गुरु की खोज के लिए परसंघ में जानेवाले मुनि की आयार-जीद - कप्पगुणदीवणा होती है । विजयोदयाटीका में इस पद का अर्थ किया है - ' आचारस्य जीतसंज्ञितस्य कल्पस्य गुणप्रकाशना । और पं० आशाधर की टीका में लिखा है- " आचारस्य जीदस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि निरतिचाररत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति ।" पं० जिनदास शास्त्री ने हिन्दी अर्थ में लिखा है कि " आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके गुणों का प्रकाशन होता है।" अर्थात् तीनों के मत से इन नामों के शास्त्र हैं और यह कहने की जरूरत नहीं है कि आचारांग और जीतकल्प श्वेताम्बर - सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । इन सब बातों से मेरा अनुमान है कि शिवार्य भी यापनीयसंघ के आचार्य होंगे।" (जै. सा. इ./ प्र.सं./पृ.५९-६०)। दिगम्बरपक्ष 'आचारस्य जीदसंज्ञितस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । एतानि हि शास्त्राणि निरतिचार - रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति ।" ये वाक्य विजयोदयाटीका (गा. ४११ / पृ. ३१४) के हैं, जो पं० आशाधर जी द्वारा अपनी टीका में अनुकृत किये गये हैं । अर्थात् अपराजित सूरि के अनुसार भी 'आचार' और 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम हैं । किन्तु प्रस्तुत गाथा और उसकी उत्तरवर्ती गाथाओं के वर्ण्यविषय से ज्ञात होता है कि यहाँ 'आचार' और 'जीतकल्प' से इन नामों के शास्त्र अभिप्रेत नहीं हैं, अपितु क्षपक के चरण (आचरण) और करण (आवश्यक क्रियाएँ) अभिप्रेत हैं। गाथा में अन्य संघ के निर्यापक आचार्य के समीप जाने से क्षपक के जिन गुणों का प्रकाशन या दीपन होता है, उनका वर्णन किया गया है, न कि किन्हीं शास्त्रों के विषय के प्रकाशन का । यदि यहाँ यह अभिप्राय होता कि अन्य संघ के निर्यापक आचार्य के समीप जाने से आचारांग और जीतकल्प आदि शास्त्रों के अर्थ का प्रकाशन (ज्ञान) होता है, तो गाथा में 'गुण' के स्थान में 'अर्थ' शब्द का प्रयोग किया जाता । किन्तु सम्पूर्ण गाथा में क्षपक के ही विविध गुणों के प्रकाशन का कथन है । इसलिए यहाँ 'आचार' और 'जीतकल्प' से क्षपक के ही गुणविशेष विवक्षित हैं, जिनका विवरण उत्तर - गाथाओं में किया गया है। आचार का अर्थ तो स्पष्टतः 'आचरण' है। 'जीतकल्प' शब्द की व्याख्या श्वेताम्बर - कल्पसूत्र की कल्पकौमुदी नामक टीका में मिलती है। उसमें भगवान् महावीर को सम्बोधित करने 44 १२२. आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा । अज्जव-मद्दव-लाघव-तुट्ठी - पल्हादणं च गुणा ॥ ४०७ ॥ भगवती - आराधना । (जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित संस्करणों में गाथा क्र. ४११ है । ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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