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________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ९७ के लिए आनेवाले लौकान्तिक देवों को जीअकप्पिएहिं देवेहिं कहा गया है और इसकी निरुक्ति "जीतस्य अवश्यकरणीयस्याचारस्य कल्पिकैः कारकैर्देवैः'१२३ (गा. ४११/पृ.३१४) इस प्रकार की गई है। अर्थात् जीत का अर्थ है अवश्य करने योग्य आचार। कल्प शब्द का भी अर्थ आचार है-'कल्पः साध्वाचारः।१२४ और 'आयारजीदकप्पगुणदीवणा' (गा.४११/ पृ.३१४) इस गाथा के आगे भगवती-आराधना में जो गाथाएँ हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि आचार का अर्थ चरण (आचरण) और जीतकल्प का अर्थ करण (षडावश्यक) है, क्योंकि उन गाथाओं में कहा गया है कि संघ में आया हुआ मुनि और संघ में रहनेवाले मुनि एक-दूसरे के चरण और करण को जानने के लिए उनकी प्रतिलेखन, वचन, ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, विहार, भिक्षाग्रहण आदि क्रियाओं की परीक्षा करते हैं।२५ परीक्षा किस प्रकार करते हैं, इसका विस्तार से विवेचन आवासय-ठाणादिसु गाथा (४१४) की विजयोदयाटीका में किया गया है। अपराजित सूरि ने ४१३ वीं और ४१४ वीं गाथाओं की टीका में यह भी बतलाया है कि चरण का अर्थ है समिति और गुप्ति तथा करण का अर्थ है आवश्यक अर्थात् सामायिक आदि___"समितयो गुप्तयश्चरणशब्देनोच्यन्ते करणमित्यावश्यकानि गृहीतानि।" (वि. टी./ गा.४१३)। "अवश्यमेव संवरनिर्जरार्थिभिः कर्त्तव्यानि सामायिकादीनि आवश्यकान्युच्यन्ते।" (वि.टी./ गा.४१४)। इस प्रकार दूसरे संघ में जाने पर जब उस संघ के मुनि आगन्तुक मुनि के आचार (चरण = गुप्तिसमिति) तथा जीतकल्प (करण = षडावश्यक) की परीक्षा करते हैं, तभी उसके इन गुणों का प्रकाशन (दीपना) होता है। अपने संघ के मुनि एकदूसरे के चरण-करण से परिचित होते हैं, अतः इस प्रकार परीक्षा नहीं करते। इस तरह आचार और जीतकल्प मुनि के ही गुण हैं। गाथा में वर्णित अन्य गुण भी मुनि से ही सम्बन्धित हैं। जैसे अन्य संघ के निर्यापकाचार्य के पास जानेवाले मुनि की १२३. कल्पसूत्र / कल्पकौमुदीवृत्ति/ पञ्चम क्षण / पृष्ठ ११० । १२४. कल्पसूत्र / कल्पप्रदीपिकावृत्ति / पातनिका / गाथा १। १२५. क- आगंतुग-वच्छव्वा पडिलेहाहिं तु अण्णमण्णेहिं । अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहेतुं परिक्खंति ॥ ४१३ ॥ भगवती-आराधना। वच्छव्वा = वास्तव्याः (संघ में रहनेवाले)। ख-आवासयठाणादिसु पडिलेहणवयणगहणणिक्खेवे। सज्झाए य विहारे भिक्खग्गहणे परिच्छंति ॥ ४१४॥ भगवती-आराधना। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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