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________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ९५ प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदजयिनीभवम्। चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम्॥ ४३॥ आराधनां समाराध्य विधिना स चतुर्विधाम्। समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुर्दिवं ययौ॥ ४४॥ __ "अर्थात् सात भयों से रहित भद्रबाहु मुनि ने सहसा उत्पन्न हुए भूख-प्यास के श्रम को जीता और उज्जयिनी-सम्बन्धी भाद्रपद देश में पहुँचकर बहुत समय तक अनशन किया तथा चार प्रकार की आराधना करके समाधिमरण को प्राप्त हो स्वर्ग गये। ___ "इस गाथा से तो दिगम्बर-मान्यता की ही पुष्टि होती है कि मगध में दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिणापथ चले गये थे। श्वेताम्बर ऐसा नहीं मानते। इसी से 'मरणसमाधि' आदि में भद्रबाहु का उदाहरण नहीं है। अतः (पं० नाथूराम जी प्रेमी का) उक्त कथन भी ठीक नहीं है।" (भ. आ./जै. सं.सं.सं./शोलापुर प्रस्ता./पृ.३६)। हरिषेण दिगम्बराचार्य थे, यह उल्लेख 'जैन साहित्य और इतिहास' (प्र.सं./ पृ.४४६) में स्वयं प्रेमी जी ने किया है। इस तरह दिगम्बरग्रन्थ में भद्रबाहु के ऊनोदर-कष्टसहन का अथवा अनशनकष्टसहन का उल्लेख है, अतः भगवती-आराधना' में उसका वर्णन होने से वह यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए बतलाया गया उपर्युक्त हेतु भी असत्य है। १५ 'आचार,' 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"नं० ४२८ की गाथा१२१ में आधारवत्त्व गुण के धारक आचार्य को कप्पववहारधारी विशेषण दिया है और कल्पव्यवहार, निशीथसूत्र श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के १२१. चोद्दसदसणवपुव्वी महामदी सायरोव्व गंभीरो। कप्पववहारधारी होदि हु आधारवं णाम॥ ४२८॥ भगवती-आराधना। (जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं हीरालाल खुशालचन्द दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित प्रतियों में गाथा क्र. ४३० है।) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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