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________________ ९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३/प्र०२ "तो फिर अपनी इच्छानुसार करो। निर्दोष (जीव या घासफूसरहित) स्थान पर बिना आडम्बर के दाहकर्म कर दो। स्मारक बगैरह कुछ नहीं चाहिए।" महाराज ने स्वीकृति दी। "भीष्मपितामह की भाँति मरण की प्रतीक्षा करते हुए शरीर की दाहक्रिया के सम्बन्ध में इस प्रकार निर्ममता के साथ आदेश देना आचार्यश्री जैसे वीतरागियों के लिए ही संभव था।" इस प्रकार विजहना दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित थी। फिर भी उसे दिगम्बरपरम्परा के प्रतिकूल बतलाकर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भगवती-आराधना में उसका उल्लेख होने से वह दिगम्बरग्रन्थ नहीं, अपितु यापनीयग्रन्थ है। यतः इस निष्कर्ष का आधारभूत हेतु असत्य है, अतः निष्कर्ष भी असत्य है। निष्कर्ष के असत्य होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है, दिगम्बरग्रन्थ ही है। १४ भद्रबाहु-समाधिमरण बृहत्कथाकोश में यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"नम्बर १५४४ की गाथा'२० में कहा है कि घोर अवमौदर्य या अल्प भोजन के कष्ट से बिना संक्लेशबुद्धि के भद्रबाहु मुनि उत्तम स्थान को प्राप्त हुए। परन्तु दिगम्बर-सम्प्रदाय की किसी भी कथा में भद्रबाहु के इस ऊनोदर-कष्ट के सहन का उल्लेख नहीं है।" (जै.सा.इ./प्र.सं./ पृ.५९)। दिगम्बरपक्ष इसका समाधान माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने किया है। वे लिखते हैं"हरिषेण-कथाकोश सब कथाकोशों से प्राचीन है। इसमें १३१ नम्बर में भद्रबाहु की कथा है। जब मगध में दुर्भिक्ष पड़ा, तो वह सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिणापथ को चले। आगे लिखा है भद्रबाहुमुनिर्धारो भय-सप्तक-वर्जितः। पम्पाक्षुधाश्रमं तीव्र जिगाय सहसोत्थितम्॥ ४२॥ १२०. ओमोदरिए घोराए भद्दबाहू असंकिलिट्ठमदी। घोराए विगिच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ॥ १५३९॥ भगवती-आराधना (फलटण एवं जै. सं.सं.सं शोलापुर प्रकाशन)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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