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________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७३ २. काणूर् या क्राणूर् गण दिगम्बर मूलसंघ में ही था, यापनीयसंघ में कण्डूरगण था, क्राणूर् नहीं। यह 'यापनीयसंघ का इतिहास' नामक सप्तम अध्याय के तृतीय प्रकरण में तथा 'कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त' नामक अष्टम अध्याय के भी तृतीय प्रकरण में सप्रमाण दर्शाया गया है । 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने कण्डूरगण और क्राणूगण को एक ही मान लिया है, यह उनकी भ्रान्ति है । यतः क्राणूर्गण दिगम्बर मूलसंघ का ही गण था, अतः जटासिंहनन्दी दिगम्बर ही थे । यह इस बात से भी सिद्ध है कि उन्होंने वरांगचरित में यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । ५१ इस प्रकार यह हेतु भी असत्य है । इसलिए दिगम्बर जटासिंहनन्दी के द्वारा वरांगचरित से श्लोक उद्धृत किये जाने के कारण अपराजितसूरि दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं, यापनीय नहीं । यापनीयपक्ष ७ रात्रिभोजनत्यागवत दिगम्बरमत में भी मान्य "दिगम्बरपरम्परा में पूज्यपाद, अकलंकदेव आदि रात्रिभोजनत्याग को आलोकितपानभोजन नामक अहिंसामहाव्रत की भावना में समाहित करते हैं, वहाँ श्वेताम्बरमान्य दशवैकालिक आदि आगम और यापनीय - परम्परा इसे छठे व्रत के रूप में मान्य करती है। विजयोदयाटीका में रात्रिभोजन त्याग को छठा व्रत कहा जाना यही प्रमाणित करता है कि वह यापनीय कृति है ।" (जै. ध. या.सं./पृ.१५८-५९) । दिगम्बरपक्ष विजयोदयाटीका में उपलब्ध यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों के बहुसंख्यक उदाहरणों से सिद्ध है कि उसके रचयिता अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य थे। अतः उनके द्वारा रात्रिभोजनत्याग को छठे व्रत के रूप में प्रतिपादित किया जाना दिगम्बरमत के प्रतिकूल नहीं है। सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति, आदिपुराण तथा षट्खण्डागम जैसे दिगम्बर- परम्परा के अन्य ग्रन्थों में भी रात्रिभोजनत्याग को छठे व्रत के रूप में वर्णित किया गया है। यथा १. " पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजनवर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति ।" (स.सि./९/४७/९१४/पृ.३६४) । अनुवाद – “ दूसरों के दबाव में आकर पाँच मूलगुणों (महाव्रतों) और रात्रिभोजनत्याग में से किसी एक की प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है । " ५१. देखिये, 'वरांगचरित' नामक विंश अध्याय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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