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________________ अ०२०/प्र०१ वराङ्गचरित / ६६५ स्त्रीमुक्तिनिषेध श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं में भिक्खुणी-दीक्षा लेनेवाली स्त्रियों को उसी पर्याय से मुक्तिगामिनी माना गया है, किन्तु वरांगचरित में इसके विपरीत वर्णन है। उसमें कहा गया है कि राजा वरांग के साथ आर्यिकादीक्षा ग्रहण करनेवाली उसकी रानियों ने अपने तप के बल से स्वर्ग प्राप्त किया था। यथा महेन्द्रपल्यः श्रमणत्वमाप्य प्रशान्तरागाः परिणीतधर्माः। दयादमक्षान्तिगुणैरुपेताः स्वैः स्वैस्तपोभिस्त्रिदिवं प्रजग्मुः॥ ३१ / ११३॥ वरांगचरितकार के अनुसार स्त्रियाँ ही नहीं, पुरुष भी रत्नत्रय की आराधना कर पहले देव और मनुष्य गतियों का सुख भोगते हैं, पश्चात् क्रम से निर्वाण प्राप्त करते हैं सदृष्टिसज्ज्ञानचरित्रवद्भ्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति सुदृष्टयो ये। भुक्त्वा सुखं ते सुरमानुषाणां क्रमेण निर्वाणमवाप्नुवन्ति ॥ ७/५३॥ ये कथन इस बात के सूचक हैं कि स्त्रीपर्याय से साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। रत्नत्रय की आराधना से पहले देवगति प्राप्त होगी, पश्चात् मनुष्यगति एवं परिपूर्ण संयम के साधनभूत पुरुषशरीर और वज्रवृषभनाराचसंहनन प्राप्त होने पर सकल संयम द्वारा मोक्षप्राप्ति संभव है। श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की मान्यता है कि तीर्थंकर मल्लिनाथ स्त्री थे। अत एव उनके ग्रन्थों में उन्हें स्त्रीलिंगीय मल्ली शब्द से अभिहित किया गया है, जबकि. वरांगचरित में पुंल्लिंगीय मल्लिः शब्द का प्रयोग है। साथ ही उन्हें जितने भी विशेषणों से विशेषित किया गया है, वे सब पुंल्लिग हैं, जिनसे मल्लिनाथ के स्त्री होने का निषेध और पुरुष होने की मान्यता पुष्ट होती है। यथा-'कुन्थुस्त्वरो मल्लिरतुल्यवीर्यः॥' (२७/३९)। यहाँ 'मल्लिः ' शब्द तथा उसके विशेषण 'अतुल्यवीर्यः' दोनों के साथ पुंल्लिग का प्रयोग हुआ है, जो मल्लिनाथ के पुरुष होने का सूचक है। निम्नलिखित स्थलों पर भी पुंल्लिग का ही प्रयोग किया गया है-"मल्लिनमिश्चाप्यपराजिताख्यात्।" (२७/ ६७) अर्थात् मल्लिनाथ तथा नमिनाथ अपराजित स्वर्ग से अवतरित हुए थे। "नमिश्च १. "तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ण्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया ---।" ज्ञातृधर्मकथाङ्ग। अध्ययन ८/ अनुच्छेद १३९ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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