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________________ ५३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०२ कि प्रबन्धग्रन्थों के लिखे जाने के पाँच सौ वर्ष पूर्व हरिभद्र के पंचवस्तु तथा जिनभद्र की निशीथचूर्णि में सन्मतिसूत्र और उसके कर्ता के रूप में सिद्धसेन के उल्लेख उपस्थित हैं। जब प्रबन्धों से प्राचीन श्वेताम्बरग्रन्थों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो सिद्धसेन का उल्लेख है, वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर कुछ द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का है?" (जै.ध.था.स/ पृ. २२६-२२७)। दिगम्बरपक्ष प्रश्न यह है कि जब पूर्वकालीन श्वेताम्बरग्रन्थों में सिद्धसेन की कृति के रूप में सन्मतिसूत्र का उल्लेख है, तब उत्तरकालीन प्रबन्धग्रन्थों में क्यों नहीं है? उनमें तो अवश्य ही होना चाहिए था। जिन प्रबन्धग्रन्थों में सिद्धसेन का सम्पूर्ण जीवनचरित वर्णित है, जिनमें उनके द्वारा रचित साहित्य के अन्तर्गत द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार का उल्लेख है, उनमें सन्मतिसूत्र जैसे अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ का उनकी कृति के रूप में उल्लेख नहीं है, यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह श्वेताम्बरसाहित्य में उनकी कृति के रूप में मान्य नहीं था। निशीथचूर्णिकार श्री जिनदास महत्तर (७वीं शती ई०) एवं आचार्य हरिभद्र सूरि (८वीं शती ई०) आदि ने सन्मतिसूत्र (६वीं शती ई०) को भ्रम से श्वेताम्बरीय ग्रन्थ घोषित कर दिया, किन्तु इससे अन्य आचार्य सहमत नहीं थे, क्योंकि उसमें प्रतिपादित केवली का दर्शन-ज्ञानोपयोग-अभेदवाद श्वेताम्बरागमसम्मत नहीं है। इसी कारण जिनभद्रगणी, सिद्धसेनगणी आदि श्वेताम्बराचार्यों ने सन्मतिसूत्रकार के लिए आगमविरुद्धभाषी, पण्डितम्मन्य जैसे तिरस्कारपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है और प्रबन्धग्रन्थों में सिद्धसेन की कृतियों में 'सन्मतिसूत्र' का उल्लेख नहीं किया गया। इससे सिद्ध है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बरपरम्परा के नहीं थे। दिगम्बरपरम्परा में जैसे पूर्वकालीन ग्रन्थों में उनका आदरपूर्वक उल्लेख है, उसी प्रकार उत्तरकालीन ग्रन्थों में भी है। यह साबित करता है कि हैं वे दिगम्बरपरम्परा के आचार्य थे। इस तरह मुख्तार जी के तर्क में विचित्रता की बात क्या है? वह तो एक युक्तिसम्मत अत्यन्त सीधा-सादा तर्क है। हाँ, मुख्तार जी के आलोचक विद्वान् का यह तर्क अवश्य विचित्र लगता है कि श्वेताम्बर-प्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का उल्लेख इसलिए नहीं है कि उसमें "श्वेताम्बर-आगम-मान्य क्रमवाद का खण्डन है, इसीलिए श्वेताम्बर आचार्यों ने जानबूझकर उस ग्रन्थ की उपेक्षा की है। मध्ययुगीन सम्प्रदायगत मान्यताओं से जुड़े हुए श्वेताम्बराचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनके सन्मतिसूत्र का संघ में व्यापक अध्ययन हो। अतः जानबूझकर उसकी उपेक्षा की।" (जै.ध.या.स./ पृ. २२८)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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