SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१८ / प्र० २ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३५ 1 यह तर्क विचित्र इसलिए है कि श्वेताम्बर - आगममान्य क्रमवाद का खण्डन पहली, दूसरी और पाँचवीं द्वात्रिंशिकाओं में भी है, क्योंकि उनमें यौगपद्यवाद का प्रतिपादन है। तथा उन्नीसवीं निश्चयद्वात्रिंशिका में भी यौगपद्यवाद स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में तथा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में भी परस्पर अभेद का प्रतिपादन मिलता है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों आगमों के विरुद्ध है। उसमें और भी अनेक प्रतिपादन श्वेताम्बर - मान्यताओं के विरुद्ध हैं। जब इन द्वात्रिंशिकाओं का उल्लेख प्रबन्धों में करने से मध्ययुगीन श्वेताम्बराचार्यों को कोई हानि दिखाई नहीं दी, तब सन्मतिसूत्र का उल्लेख करने से हानि दिखाई देती थी, यह तर्क गले नहीं उतरता । वे उपर्युक्त श्वेताम्बरमान्यता - विरोधी द्वात्रिंशिकाओं के व्यापक अध्ययन पर प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहते थे, केवल सन्मतिसूत्र पर लगाना चाहते थे, यह बात बुद्धिगम्य नहीं है। दूसरे, वे सन्मतिसूत्र के व्यापक अध्ययन पर रोक लगाना चाहते थे, सीमित अध्ययन पर नहीं, तथा ग्रन्थ तो उपलब्ध रहे, केवल उसे सिद्धसेनकृत ग्रन्थों की सूची में न रखा जाय, इतने मात्र से उसका व्यापक अध्ययन रुक जायेगा, ये तर्क अपने मध्ययुगीन श्वेताम्बराचार्यों की बुद्धि पर थोपना उनकी बुद्धि को बालबुद्धि से भी गया बीता सिद्ध करना है। यह बालबुद्धिप्रसूत तर्क सिद्धसेनकृत ग्रन्थों की सूची में सन्मतितर्क के उल्लेख के अभाव का औचित्य सिद्ध करने में असमर्थ है। अतः उसके अभाव के औचित्य को सिद्ध करनेवाला केवल एक ही तर्क शेष रहता है, वह यह कि सन्मतितर्क उन सिद्धसेन की कृति थी ही नहीं, जिनके जीवनचरित का वर्णन प्रबन्धों में किया गया है। वह दिगम्बर सिद्धसेन की कृति थी, जिनके द्वारा प्रतिपादित उपयोग- अभेदवाद का खण्डन जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में किया है तथा दर्शनप्रभावक होने से जिसके अध्ययन का औचित्य दिगम्बरअकलंकदेवकृत सिद्धिविनिश्चय के साथ श्वेताम्बर - निशीथचूर्णि में प्रतिपादित किया गया है । यथा "दंसणगाही — दंसणणाणप्पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि हंतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः । " ७५ इस तरह चूँकि सन्मतिसूत्र का उल्लेख प्रबन्धों में वर्णित सिद्धसेन की कृतियों की सूची में नहीं है, अतः वह उनकी कृति नहीं है, अपितु दिगम्बरकृति है, मुख्तार ७५. निशीथचूर्णि / उद्देशक १ ( पुरातन जैन वाक्य सूची / प्रस्तावना / पृ. ११९ पर पादटिप्पणी २ में उद्धृत)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy