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भगवती - आराधना / ६५
अ० १३ / प्र० २
नियुक्ति और वट्टकेर स्वामी के मूलाचार की पचासों गाथाएँ बिलकुल एक हैं। अभी बम्बई में जब मैंने भगवती आराधना की कुछ गाथाएँ पढ़कर सुनाईं, तब उन्होंने कहा कि उनमें से भी अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों में मिलती हैं। उदाहरण के लिए ४२७ नम्बर की नीचे लिखी गाथा देखिए
आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिण्डकिरियम्मे । वदजेटुपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो ॥
" इस गाथा में दस प्रकार के श्रमणकल्प का नामोल्लेख है। बिलकुल यही गाथा श्वेताम्बर - कल्पसूत्र में मिलती है और शायद आचारांगसूत्र में भी है। इस बात का उल्लेख करते हुए पण्डित जी ८२ लिखते हैं कि - "मूलाचार में श्री भद्रबाहुकृत निर्युक्तिगत गाथाओं का पाया जाना बहुत अर्थसूचक है। इसमें श्वेताम्बर - दिगम्बर-सम्प्रदाय की मौलिक एकता के समय का कुछ प्रतिभास होता है।'' ८३
इस पूर्व लेख में प्रेमी जी ने भगवती आराधना को दिगम्बरग्रन्थ ही माना है और बतलाया है कि भगवती आराधना आदि दिगम्बरग्रन्थों तथा आवश्यकनिर्युक्ति आदि श्वेताम्बर - ग्रंथों में जो समान गाथाएँ मिलती हैं, वे दोनों सम्प्रदायों को अपनी समान मातृपरम्परा से प्राप्त हुई हैं । इस गाथागत समानता से दोनों सम्प्रदायों की मौलिक एकता पर प्रकाश पड़ता है। इस मत के समर्थन में प्रेमी जी ने श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी के वचन भी उद्धृत किये हैं । इस प्रकार प्रेमी जी का उत्तरकालीन मत उनके ही पूर्वकालीन मत से बाधित है। पं० सुखलाल जी के वचन भी प्रेमी जी के उत्तरकालीन मत का खण्डन करते हैं ।
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की भी कुछ गाथाएँ श्वेताम्बर - आगमों की गाथाओं से सादृश्य रखती हैं। इसका कारण बतलाते हुए डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में लिखा है
"The traditional aspect of Kundakunda's works is clear from the fact that his works have some common verses with some texts of the Śvetambara canon, being a common property in early days they have been preserved by both the sections independently.” (p. 23).
८२. पण्डित सुखलाल जी संघवी, प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् ।
८३. पं० नाथूराम जी प्रेमी : 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ / ' अनेकान्त ' / वर्ष १ / किरण ३ / माघ, वीर नि. सं. २४५६ / पृ. १४९ / लेख का शेषांश 'अनेकान्त / वर्ष १ / किरण ४ / दिनांक २२.१२.२९ : में प्रकाशित ।
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