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________________ अ० १३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ५७ और पण्डितों को उसमें ऐसा कोई भी सिद्धान्त दिखाई नहीं देता था, जो दिगम्बरमत के प्रतिकूल हो। अतः वे उसे दिगम्बराचार्य की ही कृति मानते थे। इसके विपरीत उस पर किसी यापनीय-आचार्य की टीका उपलब्ध न होना, इस बात का सबूत है कि उसका अध्ययन-अध्यापन यापनीय-सम्प्रदाय में नहीं होता था। सम्भवतः वे उससे परिचित ही नहीं थे। यदि वह स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति का पोषण करनेवाले यापनीयमत का ग्रन्थ होता, तो इसका अध्ययन-अध्यापन उस सम्प्रदाय में प्रचलित होता और तत्कालीन दिगम्बरमुनि इस बात से भली-भाँति परिचित होते। इस स्थिति में वे किसी जैनाभासी सम्प्रदाय के ग्रन्थ पर टीका लिखकर अपने सम्यक्त्व को दूषित न करते, जब कि उसके द्वारा प्रतिष्ठित दिगम्बर प्रतिमाएँ भी अपूज्य मानी जाती थीं। इससे सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ यापनीय-परम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बर-परम्परा का ही है। दिगम्बराचार्यों के लिए प्रमाणभूत भगवती-आराधना दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ इसलिए भी सिद्ध होता है कि भगवजिनसेन ने आदिपुराण (१/४९) में आराधनाकार शिवकोटि (शिवार्य) को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया है। जिनसेन ८वीं शती ई० में हुए थे। (देखिये , अध्याय १०/प्रकरण १/शीर्षक १०.१)। उस समय यापनीय-सम्प्रदाय फल-फूल रहा था। उसकी विपरीत मान्यताओं से जिनसेन को वह जैनाभास भी प्रतीत हुआ होगा, क्योंकि विक्रम की १३वीं शताब्दी के इन्द्रनन्दी भट्टारक ने 'नीतिसार' (श्लोक १०) में यापनीयसम्प्रदाय को जैनाभास कहा है। इसलिए यदि आचार्य जिनसेन भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ और शिवार्य को यापनीय-आचार्य मानते, तो उन्हें नमस्कार कदापि न करते। सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को भी उन्होंने दिगम्बर होने के कारण ही नमस्कार किया है। (आदिपुराण १/४२)। पाँचवीं शती ई० में हुए पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (९/२२) में भगवती-आराधना की यह गाथा 'उक्तं च' कहकर उद्धृत की है औकंपिय अणुमाणिय जं दिटुं बादरं च सुहुमं च। छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी॥ ५६४॥२ ७१. या पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहिताऽपि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता सा न वन्दनीया, न चार्चनीया।" । श्रुतसागरटीका / बोधपाहुड / गा.१० । ७२. पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित तथा भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि (९/२२/पृ.३४६) में यह गाथा पादटिप्पणी में दी गई है। इस ग्रन्थ के परिशिष्ट २ में निबद्ध श्री प्रभाचन्द्रविरचित 'तत्त्वार्थवृत्तिपदम्' में भी पृष्ठ ४२६ पर सूत्र ९/२२ की व्याख्या में यह गाथा 'तदुक्तं' निर्देशपूर्वक उद्धृत की गई है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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