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________________ ३१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ श्वेताम्बरमान्य पाठों में तथा सिद्धसेनगणी और हरिभद्र की टीकाओं में उद्धृत पाठों में 'इन्द्रिय' शब्द पहले और 'अव्रत' शब्द तीसरे स्थान पर है। किन्तु भाष्य में पहले 'अव्रत' की व्याख्या की गई है, उसके बाद 'कषाय' की, फिर 'इन्द्रिय' की। यह सूत्रक्रमोल्लंघन नाम की असंगति है। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। यदि भाष्य स्वोपज्ञ होता तो इस क्रमोल्लंघन की असंगति का प्रसंग न आता। सिद्धसेनगणी ने इस असंगति का औचित्य सिद्ध करते हुए कहा है-"यहाँ इन्द्रिय और कषाय का उल्लंघन करके भाष्यकार ने अव्रतों की व्याख्या की है। इसका प्रयोजन यह बतलाना है कि हिंसादि अव्रत समस्त आस्रवसमूह के मूल हैं। उनमें प्रवृत्त होने पर ही आस्रवों में प्रवृत्ति होती है और उनसे निवृत्त होने पर ही समस्त आस्रवों से निवृत्ति होती है। सूत्र में 'इन्द्रिय' शब्द का आदि में सन्निवेश सूत्रबन्ध में शोभा लाने के लिए किया गया है।"९२ गणी जी की ये दोनों युक्तियाँ अयुक्त हैं तथा "सूत्रबन्ध (सूत्ररचना) में शोभा लाने के लिए 'अव्रत' शब्द के स्थान में 'इन्द्रिय' शब्द का विन्यास किया गया है।" यह युक्ति तो हास्यास्पद है। इसे स्वीकार करने में निम्नलिखित बाधाएँ आती हैं १. हिंसादि अव्रत समस्त आस्रवों के मूल नहीं हैं, क्योंकि महाव्रत धारण कर लेने पर भी संज्वलनकषाय के उदय से सूक्ष्मसाम्पराय-गुणस्थान तक कर्मों का साम्परायिक आस्रव होता है। अतः समस्त आस्रवों का मूल बतलाने के लिए सूत्र के आदि में 'अव्रत' शब्द के सन्निवेश का औचित्य नहीं था। इससे साबित होता है कि सूत्र के आदि में 'इन्द्रिय' शब्द का सन्निवेश सूत्ररचना की शोभा के लिए नहीं, अपितु आस्रवभेदों में प्रथमतः निर्देश्य होने के कारण ही हुआ है। २. इस नियम का प्रतिपादन किसी भी शास्त्र में नहीं किया गया है कि सूत्रबन्ध का प्रमुख प्रयोजन सूत्र की शब्दरचना में शोभा उत्पन्न करना है और सूत्र के प्रतिपाद्य अर्थ का बोध कराना गौण प्रयोजन है। व्याकरणशास्त्र में प्रतिपाद्य अर्थ का बोध कराना ही सूत्रबन्ध का एकमात्र प्रयोजन बतलाया गया है। अतः सूत्रबन्ध में शोभा लाने के लिए उसके उचित शब्दक्रम को बदलकर उसके क्रमिक अर्थावगम में बाधा उत्पन्न ९२. "तत्रेन्द्रियकषायानुल्लघ्याव्रतान्येव व्याचष्टे भाष्यकारः। किं पुनरत्र प्रयोजनमिति? उच्यते अयमभिप्रायो भाष्यकारस्य-हिंसादीन्यव्रतानि सकलास्रवजालमूलानि तत्प्रवृत्तावास्रवेष्वेव प्रवृत्तिस्तन्निवृत्तौ च सर्वास्रवेभ्यो निवृत्तिरित्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थं सूत्रोक्तक्रममतिक्रम्याव्रतानि व्याचष्टे भाष्यकारः। सूत्रबन्धशोभाहेतोरिन्द्रियादिसन्निवेशः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ६/६/पृ. १० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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