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________________ अ०२२/प्र०२ स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७३१ दिगम्बरपक्ष ये मान्यताएँ दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध अवश्य हैं, किन्तु जो दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध हैं, वे यापनीयों की मान्यताएँ हैं, यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वे ऐसे ग्रन्थ में उपलब्ध हो, जिसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं के विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन न हो। किन्तु पउमचरिउ में तो ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः जब वह यापनीयपरम्परा का ही नहीं है, तब उसमें उपलब्ध उक्त मान्यताएँ यापनीयों की कैसे हो सकती हैं? और अगर हों, तो भी वह यापनीयग्रन्थ नहीं हो सकता, क्योंकि यापनीयमत के जो स्त्रीमुक्ति आदि आधारभूत सिद्धान्त हैं, उनका उसमें निषेध किया गया है। निषेध की उपपत्ति पउमचरिउ के दिगम्बरग्रन्थ होने पर ही संभव है, अन्यथा नहीं। इस स्थिति में उपर्युक्त मान्यताएँ पउमचरिउ को न तो यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ हैं, न उसके दिगम्बरग्रन्थ होने को, असिद्ध करने में। उन मान्यताओं की उपपत्ति केवल इस बात को स्वीकार करने से हो सकती है कि हरिवंशपुराणकार जिनसेन के समान स्वयम्भू ने भी देशकाल के औचित्य को देखते हुए जैनेतर मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में समाविष्ट किया है। कुछ मान्यताएँ स्वबुद्धिकल्पित भी हो सकती हैं। इस प्रकार अन्यथा उपपन्न होने से उन मान्यताओं का उल्लेख पउमचरिउ के कर्ता स्वयम्भू को यापनीय ग्रन्थकार सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। ऊपर निर्दिष्ट प्रमाणों और युक्तियों से स्पष्ट हो जाता है कि स्वयंभूकृत 'पउमचरिउ' को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये सभी हेतु हेत्वाभास हैं। 'पउमचरिउ' में यापनीयग्रन्थ-साधक हेतुओं की अनुपलब्धि एवं दिगम्बरग्रन्थसाधक हेतुओं की उपलब्धि से सिद्ध है कि वह दिगम्बरग्रन्थ है, यापनीयग्रन्थ नहीं। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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