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________________ अ०१५ / प्र०१ मूलाचार / २०७ अनिवार्य नहीं है अर्थात् वह मुनियों के मूलगुण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए 'मूलाचार' यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं है, क्योंकि उसमें प्रत्येक मुनि के लिए अट्ठाईस मूलगुणों का पालन अनिवार्य बतलाया गया है, जिनमें अचेलत्व (नग्नता) पहला मूलगुण है। २.१. योगचिकित्साविधि-न्याय कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल ___और मोक्षमार्ग के प्रसंग में यह योगचिकित्साविधि-न्याय जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल है। क्योंकि यदि मोक्ष के लिए इस न्याय का अनुसरण किया जाय, तो पहला प्रश्न तो यही उठता है कि भले ही कुछ पुरुषों में जिनकल्प के आचरण की शक्ति हो और उनके लिए वस्त्रधारण अनावश्यक हो, पर जब मृदुमार्ग से मोक्ष संभव है, तब कठिन मार्ग को अपनाने का क्या औचित्य है? यह तो विवेकसंगत नहीं है। लोकोक्ति भी है अर्के चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्। इष्टस्यार्थस्य संसिद्धौ को विद्वान् यत्नमाचरेत्॥ अर्थात् यदि मार्गस्थ आक-वृक्ष में ही मधु मिल जाय, तो कोई पर्वत पर क्यों जायेगा? यदि इच्छित वस्तु अनायास ही मिल जाय तो कौन समझदार आदमी उसके लिए कष्ट उठायेगा? न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते' जब फल को हाथ से तोड़ना सम्भव होता है, तब वृक्ष पर कोई नहीं चढ़ता। यदि यह कहा जाय कि "स्थविरकल्पियों का वस्त्रग्रहण मोक्षसाधक है और जिनकल्पियों का वस्त्रग्रहण मोक्ष में बाधक, क्योंकि स्थविरकल्पियों के वस्त्रग्रहण से हिंसा-मूर्छा कम होती है और जिनकल्पियों के वस्त्रग्रहण से ज्यादा, इस कारण जिनकल्पियों के लिए वस्त्रग्रहण का निषेध है," तो यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि इस भेद का कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। कारण-कार्य-सादृश्य-न्याय से तो यही युक्तियुक्त प्रतीत होता है कि जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों के वस्त्रग्रहण से हिंसामूर्छारूप परिणाम सदृश ही होंगे। तथा जिस प्रकार स्थविरकल्पियों के वस्त्रधारण से उन्हें अल्पकर्मबन्ध और मोक्षरूपी अधिक लाभ माना गया है, उसी प्रकार जिनकल्पियों के वस्त्रधारण से भी इसी परिणाम की प्राप्ति मानने में कोई बाधा नहीं है। अतः "स्थविरकल्पियों के लिए वस्त्रग्रहण मोक्षसाधक है ओर जिनकल्पियों के लिए मोक्षबाधक, इसलिए जिनेन्द्रदेव ने जिनकल्पियों के लिए वस्त्रग्रहण का निषेध किया है," यह तर्क न तो युक्तियुक्त है, न यह आगमवचन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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