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________________ २०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१५ / प्र०१ __ दूसरी बात यह है कि शरीर के रोग तो अनेक होते हैं तथा एक ही रोग किसी को मन्दरूप में होता है, किसी को तीव्ररूप में, किसी का दुःसाध्य होता है, किसी का सुसाध्य। अतः इनके लिए अलग-अलग चिकित्साविधि का होना युक्तिसंगत है। किन्तु आत्मा का संसाररूपी रोग तो सभी आत्माओं में एक ही प्रकार का है और उसकी गहनता भी सभी में एक जैसी है, और आत्माओं की शक्ति भी समान है, तब किसी का संसाररोग मृदु चिकित्साविधि से और किसी का कठोर चिकित्साविधि से ठीक हो, इसका कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि स्थविरकल्पियों के ज्ञानावरणादि कर्म मृदु प्रजाति के हों और जिनकल्पियों के कठोर प्रजाति के, इसलिए स्थविरकल्पियों के ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय शिथिल आचरणवाले स्थविरकल्प से हो जाता हो और जिनकल्पियों के ज्ञानावरणादि कर्मों का विनाश कठोर आचारवाले जिनकल्प से संभव होता हो। यदि ऐसा माना जाय, तो यह जिनोपदिष्ट कर्म-सिद्धान्त के प्रतिकूल होगा। मोक्ष के प्रसंग में योगचिकित्साविधि-न्याय को मान्य करने से यह अर्थ फलित होगा कि जैसे दुःसाध्य रोगी को नीरोग होने के लिए तीक्ष्ण औषध की आवश्यकता होती है और सुसाध्य रोगी के लिए मृदु औषध की, इसी प्रकार जिनकी मुक्ति दुःसाध्य होती है, उन्हें मुक्त होने के लिए नग्न शरीर पर तीक्ष्ण परीषह सहन करानेवाले जिनकल्प जैसे कठोर आचार की जरूरत होती है तथा जिनकी मुक्ति सुसाध्य होती है, उनके लिए परीषहमुक्त मृदु आचार ही आवश्यक होता है। तब इससे यह अभिप्राय प्रकट होगा कि तीर्थंकरों की मुक्ति दुःसाध्य होती है, इसलिए वे जिनकल्प अंगीकार करते हैं और सामान्य स्त्री-पुरुषों की मुक्ति सुसाध्य होती है, इस कारण वे स्थविरकल्प अपनाते हैं। तब इसका यह फलितार्थ होगा कि दर्शनविशुद्धि आदि बीस (श्वेताम्बरयापनीय-मतानुसार) भावनाओं के अनुष्ठान से तीर्थंकरप्रकृति के साथ मुक्ति को दुःसाध्य बनानेवाले घोर पापकर्मों का बन्ध होता है और अनुष्ठान न करने से उनका संवर होता है। इस प्रकार मोक्ष के प्रसंग में योगचिकित्साविधि-न्याय को मान्यता देने से सम्पूर्ण जिनोपदिष्ट कर्मसिद्धान्त उलट-पुलट हो जाता है, जिनशासन की धज्जियाँ उड़ जाती है, तथा जिनकल्पयोग्य उत्तमसंहननयुक्त पुरुषपर्याय की अपेक्षा स्थविरकल्पयोग्य हीनसंहननयुक्त पुरुष एवं स्त्री पर्यायें उत्कृष्ट सिद्ध होती हैं। अतः मोक्ष के प्रसंग में योगचिकित्सा-विधि-न्याय जिनशासन के प्रतिकूल है। २.२. यापनीय-परम्परा में अन्य प्रकार के २७ मूलगुण न केवल नग्नत्व (अचेलत्व), बल्कि मूलाचार में वर्णित मुनि के २८ मूलगुणों में से अन्य अनेक मूलगुण भी यापनीय-परम्परा में मान्य नहीं थे। क्योंकि, यापनीय Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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