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________________ अ०१५/प्र०१ मूलाचार / २०९ मतावलम्बी श्वेताम्बर-आगमों को मानते थे, जिनमें मुनियों के लिए मूलाचार-वर्णित २८ मूलगुण स्वीकृत नहीं हैं। समवायांगसूत्र में श्रमणों के अधोलिखित २७ मूलगुणों का वर्णन है, जो मूलाचारवर्णित मूलगुणों से काफी भिन्न हैं "सत्तावीस अणगारगुणा पन्नत्ता, तं जहा-१. पाणाइवायाओ वेरमणं (प्राणातिपातविरमण), २. मुसावायाओ वेरमणं (मृषावादविरमण), ३. अदिन्नादाणाओ वेरमणं (अदत्तादानविरमण), ४. मेहुणाओ वेरमणं (मैथुनविरमण), ५. परिग्गहाओ वेरमणं (परिग्रहविरमण),६.सोइंदियनिग्गहे, (श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह) ७. चक्खिंदियनिग्गहे (चक्षुरिन्द्रियनिग्रह), ८. घाणिंदियनिग्गहे (घ्राणेन्द्रियनिग्रह), ९. जिब्भिंदियनिग्गहे (जिह्वेन्द्रियनिग्रह), १०. फासिंदियनिग्गहे (स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह), ११. कोहविवेगे (क्रोधविवेक), १२. माणविवेगे (मानविवेक), १३. मायाविवेगे (मायाविवेक), १४. लोभविवेगे (लोभविवेक), १५. भावसच्चे (भावसत्य), १६. करणसच्चे (करणसत्य), १७. जोगसच्चे (योगसत्य), १८. खमा (क्षमा), १९.विरागया (विरागता), २०.मण-समाहरणया (मनः-समाधारणता), २१. वयसमाहरणया (वचन-समाधारणता), २२. कायसमाहरणया (काय-समाधारणता) २३. णाणसंपण्णया (ज्ञानसम्पन्नता), २४.दसणसंपण्णया (दर्शनसम्पन्नता), २५. चरित्तसंपण्णया (चारित्रसम्पन्नता), २६. वेयण-अहिया-सणया (वेदनातिसहनता), २७. मारणंतियअहियासणया (मारणान्ति-कातिसहनता)।" १२ यद्यपि इन्हें मूलगुण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनके बिना भी गृहस्थों और परलिंगियों की मुक्ति मानी गई हैं, तथापि यदि इन्हें मूलगुण मान भी लिया जाय, तो भी इनमें पाँच समितियाँ, छह आवश्यक, आचेलक्य, केशलोच, अस्नान, अदन्तधावन, क्षितिशयन, स्थितिभोजन और एकभुक्त ये अठारह मूलगुण शामिल नहीं हैं, जो मूलाचार में स्वीकृत हैं। वैसे केशलोच, अस्नान और अदन्तधावन का पालन श्वेताम्बर मुनि भी करते हैं, फिर भी ये उनमें मूलगुणरूप में मान्य नहीं हैं।१३ यापनीय भी श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते थे, अतः उन्हें भी ये समवायांगसूत्र-वर्णित २७ मूलगुण ही मान्य थे। मूलाचार में वर्णित मुनि के २८ मूलगुणों से श्वेताम्बर-यापनीय मतों में मान्य इन २७ मूलगुणों का तनिक भी मेल नहीं है। अतः मूलाचार के यापनीयग्रन्थ न होने १२. क- समवायांगसूत्र २७/१७८ (मुनि कल्याणविजय जी : मानव भोज्य-मीमांसा/पृ. २५२ तथा डॉ. सुरेश सिसोदिया : जैनधर्म के सम्प्रदाय/ पृ. १५९-१६० से उद्धृत)। ख-उपर्युक्त उद्धरण में कोष्ठकगत हिन्दी-रूपान्तरण प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक द्वारा किया गया है। १३. डॉ. सुरेश सिसोदिया : जैनधर्म के सम्प्रदाय/ पृ. १७५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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