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तत्त्वार्थसूत्र / ३१५
अ० १६ / प्र० १
इसमें अनीकाधिपतयः भेद अधिक है जो सूत्रसम्मत नहीं है । इसीलिए सिद्धसेन गणी लिखते हैं- " सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सूरिणा नानीकाधिपतयः भाष्ये पुनरुपन्यस्ताः।” (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / ४/४/पृ. २७६) ।
अर्थात् सूत्र में तो आचार्य ने अनीकों का ही ग्रहण किया है, अनीकाधिपतियों का नहीं, किन्तु भाष्य में किया है।
इस पर टिप्पणी करते हुए मुख्तार जी कहते हैं- “ इससे सूत्र और भाष्य में जो विरोध आता है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता। सिद्धसेनगणी ने इस विरोध का कुछ परिमार्जन करने के लिए जो यह कल्पना की है कि ' भाष्यकार ने अनीकों और अनीकाधिपतियों के एकत्व का विचार करके ऐसा भाष्य कर दिया जाना पड़ता है' (त./भाष्यवृत्ति ४/४), वह ठीक मालूम नहीं होती, क्योंकि अनीकों और अनीकाधिपतियों की एकता का वैसा विचार यदि भाष्यकार के ध्यान में होता, तो वह अनीकों और अनीकाधिपतियों के लिए अलग-अलग पदों का प्रयोग करके संख्याभेद उत्पन्न न करता । भाष्य में तो दोनों का स्वरूप भी फिर अलग-अलग दिया गया है, जो दोनों की भिन्नता का द्योतन करता है । यों तो देव और देवाधिपति (इन्द्र) यदि एक हों, तो फिर 'इन्द्र' का अलग भेद करना भी व्यर्थ ठहरता है, परन्तु दश भेदों में इन्द्र की अलग गणना की गई है, इससे उक्त कल्पना ठीक मालूम नहीं होती । सिद्धसेन भी अपनी इस कल्पना पर दृढ़ मालूम नहीं होते, इसी से उन्होंने आगे चलकर लिख दिया है - ' अन्यथा वा दशसंख्या भिद्येत' (पृ. २७६) = अथवा यदि ऐसा नहीं है, तो दश की संख्या का विरोध आता है । " (जै. सा. इ. वि.प्र. / पृ. १२८-१२९)।
सूत्र और भाष्य में इस विरोध से सिद्ध होता है कि उनकी रचना एक ही व्यक्ति के द्वारा नहीं की गई है।
२.७. आक्षेप का निराकरण
डॉ॰ सागरमल जी यहाँ कोई विरोध या असंगति नहीं मानते। वे लिखते हैं"कोई भी व्याख्याकार व्याख्या में किसी भेद के उपभेद की चर्चा तो कर ही सकता है । पुनः क्या इस प्रकार भेद और उपभेदों की चर्चा दिगम्बर व्याख्याकारों ने नहीं की है? जब वे निक्षेप की चर्चा करते हैं, तो क्या स्थापना के साकार - स्थापना और निराकार - स्थापना ऐसे दो भेद नहीं करते हैं ? और कोई आग्रहपूर्वक यह कहे कि साकार और अनाकार ऐसी दो स्थापना होने से व्याख्या में निक्षेप के पाँच भेद किये गये हैं, अतः व्याख्या और मूल में असंगति है? ऐसे तो एक-दो नहीं, सैकड़ों असंगतियाँ किसी भी मूलग्रन्थ और उसके भाष्य या टीका में दिखाई जा सकती हैं । " (जै.ध.या.स./ पृ. २८९)।
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