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________________ ३१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० १ डॉक्टर साहब का यह कथन बिलकुल सत्य है कि कोई भी व्याख्याकार व्याख्या में किसी उपभेद की चर्चा कर ही सकता है, किन्तु उपभेद की चर्चा तभी करता है, जब भेद की चर्चा कर लेता है और उपभेद की चर्चा के लिए प्रस्तुत होता है । कोई भी व्याख्याकार भेद के स्थान में उपभेद का वर्णन नहीं करता, क्योंकि इससे उपभेद को भेद समझ लेने का भ्रम हो सकता है। उक्त सूत्र के भाष्य में भाष्यकार भेदकथन के लिए ही प्रस्तुत होते हैं, उपभेदकथन के लिए नहीं । यह उनके निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट हो जाता है "एकैकशश्चैतेषु देवनिकायेषु देवा दशविधा भवन्ति । तद्यथा इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशाः पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकानि अनीकाधिपतयः प्रकीर्णकाः आभियोग्याः किल्विषिकाश्चेति ।" (तत्त्वा.भाष्य ४ /४) । अनुवाद — " पूर्वोक्त देवनिकायों में से प्रत्येक देवनिकाय में देवों के दश भेद होते हैं, जैसे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, अनीकाधिपति, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक । यहाँ 'देवा दशविधा भवन्ति' कहने के बाद तद्यथा ( जैसे ) कहने से स्पष्ट है कि भाष्यकार आगे दशभेदों के ही नाम बतला रहे हैं, किसी उपभेद का नाम नहीं। अतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं है कि यहाँ उन्होंने किसी उपभेद का वर्णन किया है। उन्होंने भेदों का ही वर्णन किया है, किन्तु देवों के दश नाम बतलाने की जगह ग्यारह नाम बतला दिये हैं, यह न केवल सूत्र और भाष्य में विरोध का उदाहरण है, अपितु इससे भाष्य के भीतर ही गंभीर अन्तर्विरोध सूचित होता है । भाष्यकार प्रतिज्ञा दश भेद बतलाने की कर रहे हैं और बतलाते हैं ग्यारह भेद । यह अन्तर्विरोध इस बात का सूचक है कि इस विषय में सूत्रकार और भाष्यकार में मतभेद हैं। किन्तु भाष्यकार सूत्रकार के मत का स्पष्ट शब्दों में खण्डन करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, इसलिए उन्होंने सूत्र का अनुसरण करते हुए कहा तो यही है कि दस भेद होते हैं, किन्तु नामों का वर्णन करते समय ग्यारह नाम बतलाकर अपना मत भी स्पष्ट कर दिया है। दिगम्बर व्याख्याकारों ने स्थापनानिक्षेप के साकार स्थापना और निराकार - स्थापना ऐसे दो उपभेद अवश्य बतलाये हैं, किन्तु निक्षेप के भेद बतलाते समय नहीं, अपितु स्थापना- निक्षेप के उपभेद बतलाते समय ऐसा किया है। जैसे 'सद्भावेतरभेदेन द्विधा' ( तत्त्वार्थश्लोक - वार्तिक २/१/५, श्लोक ५४) अर्थात् वह स्थापना सद्भावस्थापना और असद्भाव-स्थापना के भेद से दो प्रकार की है। इसी प्रकार यदि भाष्य में देवों के दशभेद बतलाते समय दशभेद ही बतलाये जाते और उसके बाद अनीक के उपभेदों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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