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________________ ५७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ दुःख की वेदना अस्वीकार की गई है, जिसकी संगति कर्मसिद्धान्त की उन व्यवस्थाओं के साथ नहीं बैठती, जिनके अनुसार केवली के भी वेदनीयकर्मजन्य वेदनाएँ होती हैं, और इसलिये रत्नकरण्ड का उक्त पद्य इस कारिका के सर्वथा विरुद्ध पड़ता है, दोनों ग्रन्थों का एककर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध बाधक है । ' ९६ जहाँ तक मैंने इस कारिका के अर्थ पर उसके पूर्वापर-सम्बन्ध की दृष्टि से और दोनों विद्वानों के ऊहापोह को ध्यान में लेकर विचार किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञ का कहीं कोई उल्लेख मालूम नहीं होता । प्रो० साहब का जो यह कहना है कि 'कारिकागत वीतरागः और विद्वान् पद दोनों एक ही मुनि व्यक्ति के वाचक हैं और वह व्यक्ति 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान् पद साथ में लगा है, ९७ वह ठीक नहीं है । क्योंकि पूर्वकारिका में ९८ जिस प्रकार अचेतन और अकषाय ( वीतराग ) ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियों में बन्ध का प्रसंग उपस्थित करके पर में दुःख-सुख के उत्पादन का निमित्तमात्र होने से पाप-पुण्य के बन्ध की एकान्त मान्यता को सदोष सूचित किया है, उसी प्रकार इस कारिका में भी वीतराग मुनि और विद्वान् ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियों में बन्ध का प्रसंग उपस्थित करके स्व (निज) में दुःख-सुख के उत्पादन का निमित्तमात्र होने से पुण्य-पाप के बन्ध की एकान्त मान्यता को सदोष बतलाया है, जैसा कि अष्टसहस्रीकार श्री विद्यानन्द आचार्य के निम्न टीका - वाक्य से भी प्रकट है "स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखोत्पादनात्तु पापमिति यदीष्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युञ्ज्यान्निमित्तसद्भावात्, वीतरागस्य कायक्लेशादि-रूपदुःखोत्पत्तेर्विदुषस्तत्त्वज्ञानसन्तोषलक्षणसुखोत्पत्तेस्तन्निमित्तत्वात्।” " इसमें वीतराग के कायक्लेशादिरूप दुःख की उत्पत्ति को और विद्वान् के तत्त्वज्ञान-सन्तोष-लक्षण - सुख की उत्पत्ति को अलग-अलग बतलाकर दोनों (वीतराग और विद्वान् ) के व्यक्तित्व को साफ तौर पर अलग घोषित कर दिया है । और इसलिये वीतराग का अभिप्राय यहाँ उस छद्मस्थ वीतरागी मुनि से है, जो रागद्वेष की निवृत्तिरूप सम्यक्चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर होता है, केवली से नहीं, और अपनी उस चारित्रपरिणति के द्वारा बन्ध को प्राप्त नहीं होता । और विद्वान् का अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा से है, जो तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा सन्तोष- सुख का अनुभव करता है और अपनी ९६. अनेकान्त / वर्ष ८ / किरण ३ / पृ. १३२ तथा वर्ष ९/कि.१/पृ. ९ । ९७. अनेकान्त / वर्ष ७ / कि. ३-४ / पृ. ३४ । ९८. पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ ९२ ॥ आप्तमीमांसा । ९९. अन्तरात्मा के लिये 'विद्वान्' शब्द का प्रयोग आचार्य पूज्यपाद ने अपने समाधितन्त्र के 'त्यक्त्वारोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' (१०४) इस वाक्य में किया है और स्वामी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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