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________________ अ०१८/प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७१ उस सम्यग्ज्ञानपरिणति के निमित्त से बन्ध को प्राप्त नहीं होता। वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता है और गृहस्थ भी, परन्तु परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा आप्त नहीं। (अनेकान्त/वर्ष ८ /किरण १/पृ.३०)।१०० समन्तभद्र ने 'स्तुयान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' (११६) तथा 'त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी' (११७) इन स्वयम्भूस्तोत्र के वाक्यों द्वारा जिन विद्वानों का उल्लेख किया है, वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते हैं। १००. यहाँ मेरा (प्रस्तुत ग्रन्थ-लेखक का) मत मुख्तार जी के मत से कुछ भिन्न है। आप्तमीमांसा की उपर्युक्त कारिकाओं को एक साथ रखकर देखा जाय पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः॥ ९२॥ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि।। वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युज्यान्निमित्ततः॥ ९३॥ ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि पहली कारिका में अचेतनाकषायौ कर्तृपद द्विवचनात्मक है और 'बध्येयातां' क्रियापद भी द्विवचनात्मक है। अतः उसमें दो कर्ताओं के विषय में बात कही गयी है। किन्तु दूसरी कारिका में मुनिः कर्तृपद और युद्ध्यात् क्रियापद दोनों एक वचनान्त हैं। इसलिए यहाँ एक ही कर्ता के विषय में कथन किया गया है। वीतराग तथा विद्वान् पद मुनि के विशेषण हैं। और 'मुनि' शब्द छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि का वाचक है, क्योंकि मुख्तार जी द्वारा पूर्वोद्धृत अष्टसहस्री टीका के 'स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं---' इत्यादि वाक्य में कहा गया है कि मुनि अपने में (विविध तप एवं केशलोच आदि के द्वारा) कायक्लेशादिरूप दुःख की तथा तत्त्वज्ञान का अवलम्बन कर सन्तोषरूपी सुख की उत्पत्ति करता है। और उसके आगे उसी ९३वीं कारिका की अष्टसहस्रीटीका में निम्नलिखित वाक्य आया है ___ "स्यान्मतं-'स्वस्मिन् दुःखस्य सुखस्य चोत्पत्तावपि वीतरागस्य तत्त्वज्ञानवतस्तदभिसन्धेरभावान्न पुण्यपापाभ्यां योगस्तस्य तदभिसन्धिनिबन्धनत्वात्' इति तर्खनेकान्तसिद्धिरेवायाता।" इसका भावार्थ यह है कि यद्यपि वीतराग-तत्त्वज्ञानी मुनि स्वयं में दुःख-सुख उत्पन्न करता है, तथापि अभिसन्धिपूर्वक (अभिप्रायपूर्वक) न करने के कारण पुण्य-पाप से संयुक्त नहीं होता, क्योंकि पुण्य-पाप से संयोग अभिसन्धि (अभिप्राय) के निमित्त से होता है। इस प्रकार यहाँ स्व या पर में अभिप्रायपूर्वक सुख-दुःख उत्पन्न न करना 'वीतराग' होने का लक्षण है। यह अष्टसहस्री के निम्नलिखित वाक्यों से और भी स्पष्ट हो जाता है "परस्मिन् सुखदुःखयोरुत्पादनात् चेतना एव बन्धार्हा इति चेत् तर्हि वीतरागाः कथं न बध्येरन्? तन्निमित्तत्वाद् बन्धस्य। तेषामभिसन्धिरभावान्न बन्ध इति---।" (कारिका ९२)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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