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तृतीय प्रकरण 'तत्त्वार्थ' के सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध नहीं दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी तथा डॉ० सागरमल जी का कथन है कि तत्त्वार्थसूत्र के निम्नलिखित सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं
१. दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः। (४/३)। २. एकादश जिने। (९/११)। ३. मूर्छा परिग्रहः। (७/१७)। ४. पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः। (९/४६)। . ५. कालश्चेत्येके। (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य-मान्य पाठ ५/३८)।
पं० सुखलाल जी संघवी ने इन सूत्रों को श्वेताम्बरमत के अनुकूल बतलाया है, तो पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयमत के अनुकूल, अतः ये विद्वान्, तत्त्वार्थसूत्र को क्रमशः श्वेताम्बरग्रन्थ एवं यापनीयग्रन्थ मानते हैं। (त.सू./वि.स./ प्रस्ता./पृ. १७/ जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.५३९-५४०)।
किन्तु यह कथन सत्य नहीं है कि उपर्युक्त सूत्र दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं। दिगम्बरमत के सर्वथा अविरुद्ध हैं। 'मूर्छा परिग्रहः' और 'एकादश जिने' सूत्रों के दिगम्बरमत-सम्मत होने की सिद्धि प्रस्तुत अध्याय के प्रथम प्रकरण में अपरिग्रह की परिभाषा वस्त्रपात्रदिग्रहण-विरोधी (शीर्षक १.५) तथा सूत्र में केवलिभुक्ति निषेध (शीर्षक १.७) नामक अनुच्छेदों में की जा चुकी है। यहाँ शेष तीन सूत्रों के दिगम्बरमतअविरुद्ध होने के प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
बारह स्वर्ग भी दिगम्बरमत में मान्य
श्वेताम्बरपक्ष
_श्वेताम्बर विद्वानों का एक तर्क यह है कि तत्त्वार्थसूत्र में कल्पवासी वैमानिक देवों के बारह भेद माने गये हैं, किन्तु कल्पों की संख्या सोलह बतलायी गयी है। यह अन्तर्विरोध संकेत करता है कि तत्त्वार्थसूत्र मूलतः श्वेताम्बराचार्य-रचित है, दिगम्बरों ने उसमें अपनी सोलह कल्पोंवाली मान्यता का प्रक्षेप कर उसका दिगम्बरीकरण करने
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